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श्री सुमति तीर्थकर स्तुति हे सुमतिनाथ ! कथंचित् सत्, कथंचित् असत् जो वस्तुका स्वरूप प्रापने कहा है वह ही ठीक है। .
प्रोटक छन्द । है सत्व असत्त्व सहित कोई नय, तरु पुष्प रहे न हि व्योम कलप ।
तब दर्शन भिन्न प्रमाण नहीं, स्व स्वरूप नहीं कथमान नहीं ॥२३॥
उस्थानिका-जीवादि तत्त्वों में एक काल सत् असत्पना प्रतिपादन करके व एकांत पक्ष को दूषण देते हुए क्रम से उसी का ही वर्णन करते हैं
न सर्वथा नित्यमुदत्यपैति, न च क्रियाकारकमत्र युक्तम् । नवासतो जन्ल सतो न नाशो, दीपस्तमःपुद्गल भावतोऽस्ति ॥२४॥
अन्वयार्थ- (सर्वथा) सर्व प्रकार से (नित्यं) वस्तु नित्य ही है एकरूप ही रहने ___ पाली है ऐसा एकांत मान लेने से ( न उदेति अपैति ) न उसमें कोई अवस्था प्रगट हो
सकती है न किसी अवस्था का नाश हो सकता है। यदि योग, सांख्य व मीमांसकों के अनुसार तत्व को सर्वथा नित्य ही माना जावे। अर्थात् जैसे वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है वैसे ही वह पर्याय की अपेक्षा भी नित्य कल्पना की जावे तब उत्पत्ति व विनाश संभव नहीं है । आगे की अवस्था का स्वीकार व पिछली अवस्था का नाश हो नहीं सकता । पदि वस्तु में क्रिया व कारक होंगे तो उत्पाद व्यय स्वभाव रहना ही चाहिये परन्तु (पत्र) यहां सर्वथा नित्य मानने से (न च क्रियाकारकं युक्तं) न तो गमन आदि क्रिया हो सकती है न कोई कर्ता कर्म करण आदि कारक ही सिद्ध हो सकते हैं । जो जैसा है वह वैमा ही रहेगा । जो गमन करता होगा वह गमन हो करता रहेगा, जो ठहरा होगा वह ठहरा ही रहेगा । उसने यह काम किया, यह करेगा यह कोई कारक नहीं बनेगा। जैसा सर्वथा नित्य मानने में उत्पत्ति र विनाश नहीं बनता है वैसा ही सर्वथा अनित्य या क्षलिक मानने से भी नहीं बन सकता क्योंकि ( असतः जन्म न ) जो वस्तु प्राकाश के फूल के समान है ही नहीं उसफा जन्म हो नहीं सकता (सतः नाशः च) और जो पदार्थ है उसका सर्यया नाश नहीं हो सकता। यदि कोई कहे कि दीपक जल रहा है उसको बुझा दिया जाय तो प्रकाश का सर्वथा नाश हो ही गया उसका समाधान करते हैं कि (दीपः तमः पुद्गल भावतः अस्ति ) प्रकाश अंधकार रूप पुद्गल रूप से रहता है । प्रकाश और अंध. कार दोनों पुद्गलों की पर्याय हैं। प्रकाश की अवस्था में जो पुद्गल द्रव्य था वही अंध. कार के रूप में हो जाता है । मात्र पर्याय पलटती है, पुद्गल नाश नहीं है ।