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स्वयंभू स्तोत्र टीका
श्रग्विनी छन्द ।
है विषयलीनता, प्राणिको तापकार । है तृषा वृद्धिकर, हो न सुखसे बसर || हे प्रभो ! लोकहित, आप मत मानके । साधुजन शर्ण लें, आप गुरु मानके || २०||
(५) श्री सुमति तीर्थंकर स्तुतिः ।
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अन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मुनिस्त्वं, स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति, सर्वक्रियाकारकतत्त्व-सिद्धिः ॥ २१ ॥
श्रन्वयार्थ - ( त्वं ) श्राप सुमतिनाथ ( ग्रन्वर्थसंज्ञः ) अपने नामके समान यथार्थ अर्थ को रखनेवाले हो । प्राप ( मुनिः) प्रत्यक्ष ज्ञानी हो ( सुमतिः) शोभनीक ज्ञानके स्वामी हो ( येन ) जिसने (स्वयं) अपने से ही ( सुयुक्तिनीतं ) सुन्दर गाढ़ युक्तियों से सिद्ध किया गया जीवादि तत्त्वका स्वरूप ( मतं ) अंगीकार किया है । अर्थात् प्रमारण व नयसे सिद्ध होनेवाला तत्त्व बताया है ( यतश्च ) इसी से ही ( शेषेषु मतेषु ) प्रापके अनेकांत मतके सिवाय दूसरे एकांत मतों में (सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः नास्ति ) सर्व प्रकार की क्रिया तथा सर्व कर्ता प्रादि कारकों के स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि क्षणिक एकांत पक्षको लें जो यह कहता है कि वस्तु सर्वथा क्षरण मात्र में नाश होजाती है तो फिर कार्य होने के क्षण में सर्वथा वस्तु नहीं रह सकती । तब जगत में कोई कार्य नहीं बन सकेंगा। हर एक कार्य गधे के सींग के समान होजायगा । यदि नित्य एकांत पक्षको लें, जो जिसमें परिणाम पा विकार या बदलना नहीं हो सकेगा । उसमें भी आकाश के फूल के समान कार्य व कारण भाव रहेगा ।
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भावार्थ - यहां यह बताया है कि - हे सुमतिनाथ ! आपका जो सिद्धांत है वह प्रथार्थ है । क्योंकि न्याय की युक्तियों से वही बांध सिद्ध होता है | श्राप तो वस्तु को जैसी है वैसी बताते हैं । वस्तु प्रनेक स्वभावों को एक काल रखने वाली है इसलिये वह प्रनेकान्त है । वस्तु किसी अपेक्षा से प्रस्तिस्वभाव है, किसी अपेक्षा नास्ति स्वभाव है, किसी अपेक्षा एक स्वभाव है किसी अपेक्षा अनेक स्वभाव है । किसी अपेक्षा नित्य स्वभाव से है किसी अपेक्षा नित्य स्वभाव है । ऐसा हो आपने बताया है तब ही पके ग्रनुसार जगत में कारण कार्य सब बन जाते हैं व कर्ता कर्म कररण आदि कारक भी सिद्ध हो जाते हैं । परन्तु आपके विरुद्ध जो सत हैं जो एक ही स्वभाव या अन्त को सर्वथा