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श्री सुमति तीर्थंकर स्तुति
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वस्तु
में मानने वाले एकान्ती हैं उनके मत में वस्तु का स्वरूप बन ही नहीं सकता । यदि सर्वथा वस्तु को नित्य या सर्वथा अनित्य माने तो क्या दोष होगा उसे स्वामी प्रप्तमीमांसा में बताते हैं
पुण्य-पाप-क्रिया न स्यात् प्रत्यभावः फल कुतः, वन्ध-मोक्षी च तेपां न येषां त्वं नासि नायकः itroll क्षणिकान्तपनि प्रेत्यभावाद्यसंभवः । प्रत्यभिक्षाद्यभावान कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥ ४१ ॥
भावार्थ --- यदि पदार्थ को सर्वथा नित्य माना जावे तो यह श्रात्मा किसी प्रकार के शुभ भाषों को नहीं कर सकेगा। इसमें पुण्य बन्ध के कारण मैत्री, प्रमोद, करुणा प्रादि भाव न होंगे न हिसा असत्य आदि के अशुभ भाव होंगे, जो पाप बन्ध के कारण हैं । न पापों का क्षय होगा, न पुण्य का लाभ होगा । जब किया न होगी तो किस तरह पुनर्जन्म होगा ? और वहां क्या सुख दुःख रूप फल होगा ? तब न तो फर्म का वन्ध नेगा और न कर्मों से मुक्ति बनेगी । श्रौर यदि पदार्थ को सर्वथा क्षणिक माना जावेगा कि क्षण भर में बिलकुल नाश हो जाता है तो भी पुण्य पाप का कार्य नहीं हो सकेगा । म परलोक सिद्ध होगा सिद्ध होगा, न प्रत्यभिज्ञान होगा कि यह वस्तु वही है जो पहले क्योंकि जानने वाला नाश ही हो गया । और न किसी काम को प्रारम्भ ही किया जा सकेगा । और न इसका कोई फल ही मिल सकता है । दोनों ही एकान्त पक्ष मानने से भोजन हो तैयार नहीं हो सकता न क्षुधा मिट सकती हैं | सर्व वस्तु नित्य पक्ष में एकसी रहेंगी, अनित्य पक्ष में नाश हो जायंगी ।
न सुख दुःख रूप फल थी, न स्मरण होगा।
परन्तु श्री जिनेन्द्र भगवान ने वताया है कि वस्तु नित्य और नित्य दोनों स्वभाव है । जैसा कहा है
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नित्यं तत् प्रत्यभिज्ञानाप्तास्मासदविद्धि । क्षणिक कालभेदारी बुध्यसंवरदोषसः ॥४६॥ भावार्थ- वस्तु नित्य है इस अपेक्षा से कि ऐसा ज्ञान होता है कि यह वही है जिसे पहले देखा था । यह वही देवदत है जिसे पहले देख चुके हैं। यह वही घर है जहां फल बैठे थे । यह ज्ञान कस्मात् नहीं होता है, किन्तु बराबर चला जाता है। वस्तु प्रनित्य भी है, क्योंकि काल की अपेक्षा उसमें परिणाम या अवस्था बदल जाती हैं। जो चालक था वह युवान हो गया है। तब बालकपना नाश हो गया है, युवापना प्रगट है तथापि जिसमें यह नित्य पर्यायें हुई वह वस्तु नित्य है । ऐसा हो हे भगवन् ! का मत है । वस्तु एक काल में उत्पाद व्यय प्राध्य स्वरूप है । जैसा कहा है
समाम्नात्मनोदेति न स्येति त्यसमा
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