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श्री श्रभिनन्दन जिन स्तुति
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उनकी रक्षा व वृद्धि में लगा रहता है, यदि रक्षा करते २ उनका वियोग हो जाता है तो शोक में प्राकुलित होता है । विषय सुख को सुख मानने वाला कभी भी सुख व शान्ति नहीं पा सकता है। यह वार वार दौड़ २ कर पांचों इन्द्रियों के नाना प्रकार भोगों की तरफ एक को छोड़ दूसरे पर, दूसरे को छोड़ तीसरे पर जाता रहता है, भोगता रहता है, संतोष नहीं पाता है । उधर अपना शरीर पुराना पड़ता जाता है, एक दिन मरण यकायक प्रा जाता है, तब भी पछताता है कि प्रमुक भोग न कर सके व भोग सामग्री को देखकर रोता है कि हा ! सब छूटी जाती है । क्या करू ? तब श्रार्त परिणाम से पशु गति
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कति बांधकर दुर्गति में चला जाता है, जहां के कष्टों का पार नहीं है । फिर ऐसा नर जन्म मिलना जिसमें पांच इन्द्रिय व मन हो व विषेक करने की शक्ति हो बहुत कठिन हो जाता है उसका श्रात्मा महान दीन हीन दुःखी हो जाता है । धिक्कार है इस विषयासक्ति को, जो यहां भी जन्म भर संताप पैदा करती है और परलोक में भी क्लेश में डाल देती है, श्रात्मा का प्रत्यन्त बुरा करने वाली है । धन्य है है प्रभु ! आपने ऐसा सुन्दर व परम हितकारी सत्य स्वरूप बताकर लोगों को समझाया है कि इस क्षणभंगुर व प्रतृप्तिकारी विषय सुख में लोन न हो । किन्तु अपने ही श्रात्मा में जो स्वाधीन मानन्द भरा हुआ है जिससे तृप्ति होती है व जिसकी उपमा नहीं है ऐसे सुख के लिये यत्न करो। जिस तरह हमने राज्य पाट गृह कुटुम्ब को त्यागकर प्रात्मीक सुख का लाभ किया उस तरह तुम भी करो। इस परोपकारी उपदेश के देने वाले श्राप ही सर्वज्ञ वीतरागी प्रभु हैं, ऐसा पहचानकर सज्जन विषेकी पुरुष आपकी ही स्तुति करते हैं व प्रापको ही शरण में प्राते हैं व प्रापकी ही पूजा करते हैं क्योंकि आप सच्चे तत्त्व के बतानेवाले व उसपर पहुँचानेवाले हैं इसलिये आपकी ही शरण से भक्तको सच्चे तत्त्वका लाभ होगा और वह आपके ही आदर्शको पहुंच जायगा ।
सुभाषित - रत्नसंदोह में इन्द्रियसुखके संबंध में कहा है-
प्रसुरसुरनराणां यो न भोगेषु तृप्त: : कथमपि मनुजानां तस्य भागेषु नृप्ति: 11 जलनिधिजलपाले यो न जातो वितृष्ण स्तृण शिखरगताम्मः पानतः किस तुप्येत् ॥ ६ ॥
भावार्थ- जो जीव धरणेंद्र, इन्द्र व चक्रवर्ती ग्रादि के भोगों में तृप्त न हृपा वह किस तरह साधारण मानवीय भोगों में तृप्ति पासकता है ? जो समुद्र के जलपान से पनी कृष्णको न बुझा सका वह तिनके की नोकपर रक्खे हुए जल के पीने से फंसे तृप्त होगा ?