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________________ ४० स्वयंभू स्तोत्र टीका इसलिये ज्ञानी जीव इन क्षणभंगुर विषय भोगों में लिप्त न होकर प्रात्मकल्याण में अग्रगामी हो जाते हैं । छन्द श्रग्विनी लोलपी भोग जना नहिं अनीती करे । दोष को देख जग, भय सदा उर धरे। .' है विषय मग्नता, दोउ भव हानिकर । सुज्ञ क्यों लीन हो, पाप मत जानकर ॥६॥ उत्थानिका-विषयों में प्रासक्त होनेसे यहां ही क्या २ दोष होते हैं उन्हें बताते हैंस चानुबन्धोऽस्य जनस्य तापकृत्त षोऽभिवृद्धिः सुखतो न च स्थितिः । इति प्रभो लोकहितं यतो मतं,ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥२०॥ अन्वयार्थ-( स च अनुबन्धः ) यह ही इन्द्रिय भोगों में प्रासक्ति ( अस्य जनस्य तापकृत ) इस अति लोलुपी मानव को क्लेश देने वाली है इतना ही नहीं है, किन्तु इससे ( तृषोऽभिवृद्धिः ) तृषा की बढ़वारी होती जाती है। जितना धन का व स्त्री पुत्रादि का लाभ होता जाता है उतनी २ बांछा बढ़ती जाती है । यदि चाहे हुए पदार्थ नहीं मिलते हैं तो उनको मिलाने के लिये व यदि होते हैं तो उनकी रक्षा आदि के लिये क्लेश की परम्परा बनी ही रहती है। विषयसुख पाकर क्या जीव की स्थिति संताप रहित हो सकती है ? उसके लिये कहते हैं कि ( सुखतः स्थितिः न च ) अल्प सुखों के मिलने पर भी मानव की अवस्था सुखरूप नहीं होती, उसका संताप बढ़ जाता है । ( प्रभो ) हे श्री अभिनन्दन भगवान् ! ( यतः ) क्योंकि ( इति लोकहितं मतं ) आपका ऐसा जगत के लोगों का उपकार करने वाला मत है ( ततः ) इसलिये ( भवान् एव ) आप ही (सता गतिः मतः ) विवेकी सज्जन पुरुषों के लिये शरणरूप व आराधने व भक्ति करने योग्य माने गए हैं । भावार्थ--यहां पर प्राचार्य फिर खुलासा करके और भी करते हैं कि इन्द्रिय विषयों के सुखों में जो मगनता है वह इस लोक व परलोक में क्लेशकारी है। इतना ही नहीं है किन्तु इस जन्म में ही उनको भोगते हुए कभी भी तृप्ति नहीं होती है, उलटी तृष्णा बढ़ती हुई चली जाती है। जैसे अग्नि ईधन डालने से बढ़ जाती है कभी चुभता नहीं है, वैसे विषयासक्त मानव की इच्छा विषय भोग से दिन पर दिन बढ़ती जाती है। वह सुख व संतोष से रह भी नहीं सकता, विषयों की प्राप्ति के लिए रात दिन उद्यम किया करता है । यदि नहीं मिलते हैं तो महा संतापित रहता हैं। यदि मिलते हैं तो
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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