________________
श्री अभिनन्दन जिन स्तुति
क्षुधादिदुःखप्रतिकारतः स्थितिर्न चेन्द्रियार्थप्रभवात्पसौख्यतः । ततो गुरणो नास्ति च देहदेहिनोरितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत् ॥ १८ ॥
अन्वयार्थ - ( क्षुधा दिदुःखप्रतिकारतः ) भूख प्यास श्रादि दुःखों के इलाज करते रहने से अर्थात् भोजन पानादि देकर तृप्त करते रहने से (च) और ( इन्दियार्यप्रभवाल्पसख्यतः ) इन्द्रियों के पदार्थों के द्वारा भोग से उत्पन्न होने वाले प्रति थोड़े प्रवृप्तिकारी क्षणिक सुख से ( स्थितिः न ) इस शरीरधारी की स्थिति शरीर में सदा नहीं रहती प्रौर न तृप्त हो होती है [ ततः ] इस काररण [ देहदेहिनो. ] इस शरीर का व उसके भीतर रहने वाले जीव का [ गुणः ] उपकार या भला [ नास्ति च ] बिलकुल नहीं होता है । [ इति ] प्रतएव [ इद इत्थं ] यह जगत् इस तरह का है ऐसा [ भगवान् ] श्री श्रभिनन्दननाथ ने [ व्यजिज्ञपत् ] प्रगट किया व बताया ।
३७
भावार्थ - इस श्लोक में स्वामी समन्तभद्र ने कैसा बढ़िया तत्त्व बताया है, सो विचारने योग्य है । शरीर में शरीरधारी जीव किसी गति में श्राकर रहता है तब दोनों का ही कुछ उपकार नहीं होता है, किन्तु बुरा होता है । कथा, मोही मिथ्यात्वो जीव की है जिसका ग्रहङ्कार शरीर में है व ममकार शरीर सम्बन्धी पर पदार्थों से है, ज्ञानी वैरागी शरीर से उदासीन महात्मा मुमुक्षु की बात नहीं है । मोही जीव रात दिन भूख प्यास के व तृष्णा के व कामसेवन की चाह के दुःखों को मेटने के लिये जो भोजन पान करता है, मनोज्ञ पदार्थ खाता पीता है, अतर फुलेल लगाता है, नाच गाना देखता सुनता है, श्रनेक नगर व उपवनों की सैर करता है व मनोहर स्त्रियों का वार २ उपभोग करता है, इन सब इलाजों को करता है परन्तु न भूख न प्यास न तृष्णा न काम चाह कोई भी व्याधि नहीं मिटती है. उधर शरीर पुराना पड़ता जाता है और मोही जीव कर्मों को बांध मैला होता जाता है । इन्द्रियों के पदार्थों से ऐसा थोड़ा व इतना क्षणिक व ऐसा प्रतृप्तिकारी सुख होता है कि उससे इस मोही संसारी प्रारणी को कभी तृप्ति नहीं होती और न उस सुख का यह ही फल होता है कि शरीर व जीव दोनों दोर्घकाल तक टिके रहें । इन क्षणिक भोगों से भला तो कुछ होता नहीं, उलटा बुरा इतना होता है कि तृष्णा का रोग बढ़ जाता है तो पाप कर्म का वन्य हो जाता है। जीव को शरीर छोड़ने पर दुर्गनि जाना पड़ता है और इस शरीर को जरा ते ग्रसित हो निर्बल ग्रशक्त हो अन्त में मिट्टी में मिलना पड़ता है । हा ! कैसी भयानक संसारी प्राणियों की दशा है । इस शरीर के सम्बन्ध से