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स्वयंभू स्तोत्र टीका
महान कष्ट जीव को भोगना पड़ता है । अतएव इसका सम्बन्ध कुमित्रवत् त्यागने योग्य है । श्रात्मा को शुद्ध कर लेना ही उचित है, जिससे देह कभी न मिले और यह सदा के लिये अपने स्वभाव में स्थिति प्राप्त करले और परम तृप्तिकारक स्वात्मानन्द का लाभ करले । ऐसा परमोत्तम उपदेश हे भगवान प्रभिनन्दननाथ ! आपने जीवों को दिखाकर उनका परम कल्याण किया है। ज्ञानी जीव ऐसी भावना भाते हैं जैसा सुभाषित रत्न संदोह में श्री श्रमितिगति महाराज कहते हैं
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जिनपतिपदभक्तिर्भावना जनतत्वे विषयसुखविरक्तिमित्रता सत्यवर्गे । श्रुतिशमयमशक्ति कतान्यस्य दोषे मम भवतु च बोधिवदाप्नोमि मुक्तिम् ॥
भावार्थ- - जब तक मुक्ति न प्राप्त हो तब तक मेरी भक्ति श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणों में रहे, जैनों के यथार्थ तत्त्वों में भावना बनी रहे, इन्द्रिय विषयों के सुखों में वैराग्य रहे, सर्व प्राणी मात्र से मित्रता रहे, शास्त्र विचार, शान्तभाव व संयम में बल लगा रहे दूसरों के दोष कहने में मौनपना रहे तथा रत्नत्रयमई श्रात्मज्ञान में मगनता रहे ।
छन्द श्राग्वनी
क्षुत्त्रषा रोग प्रतिकार बहु ठानते । अक्ष सुख भोग कर तृप्ति नहि मानते । थिर नहीं जीव जन हित न हो दोडना । यह जगत् रूप भगवान विज्ञापना ||१८|| उत्थानिका - परम दयालु भगवान ने जगत के उपकार के लिये और क्या कहा सो बताते हैं
जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो, भयादकार्येष्विह न प्रवर्त्तते । इहाप्य सुत्राप्यनुबन्धदोषवित्कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत् ॥१६॥
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अन्वयार्थ-[अतिलोलः ग्रपि जन: ] अत्यन्त विषयलोलुपी भी मानव [ग्रनुबन्धदोपतः ] परम श्रासक्ति के वश से जो इस लोक परलोक में दुःख मिलते हैं इस दोष से च [ भयात् ] राजा के भय से या परलोक में दुःखों के भय से [ इह ] इस जगत में [ कार्येषु ] न करने योग्य चोरी, पर स्त्री गमन प्रादि खोटे कार्यों में [ न प्रवर्तते ] नहीं प्रवृत्ति करता है ऐसा साधारण जनता का बर्ताव रहा करता है तब [ इह ग्रपि ] इस लोक में भी [ ग्रमुत्र अपि ] परलोक में भी दोनों में [ अनुबंधदोपवित् ) विषयाशक्ति के दोष से होने वाले कुफलों को जानने वाला ज्ञानी जीव [ कथं ] किस तरह [ सुखे ] इस विषय सुख [ संसजति ] संसर्ग करेगा [ इति च श्रब्रवीत् ] ऐसा ही श्रापने उपदेश किया है ।
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