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स्वयंभू स्तोत्र टीका
सम्बन्ध कर्मों के उदय से हुआ है उनमें अपनेपने का अभिप्राय सो ममकार है । जैसे यह देह मेरी है । तथा जो कर्मों के उदय से होने वाले भाव हैं व जो निश्चय से आत्मा से भिन्न हैं उनमें अपनेपने का मिथ्या अभिप्राय सो श्रहङ्कार है जैसे मैं राजा हूं इत्यादि । ऐसे दुःखित जीवों का कल्याण हे अभिनन्दननाथ ! आपकी दिव्य ध्वनि द्वारा प्रगट सम्यक् उपदेश से हुआ । श्रापने समझाया कि यह आत्मा बिलकुल भिन्न है, यह तो प्रविनाशी शुद्ध राग-द्वेष-मोह-रहित, परम शान्त ज्ञाता दृष्टा श्रानन्दमई स्वयं परमात्मा देव है, यह कर्मों के द्वारा होने वाले ठाठों से सर्वथा भिन्न है । तथा सच्चा सुख श्रात्मा में ही भरा है । इसी को श्रद्धान करके सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर व इसी आत्मा का ध्यान करके सम्यक् चारित्र का आराधन कर, तो तू यहां भी सुख शान्ति पावेगा व भविष्य में भी उन्नति करते २ परमात्मा हो जावेगा, संसार के भयानक कष्टों से छूट जावेगा । ग्रापने बताया जैसा सारसमुच्चय में कहा है
सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य ध्रुवं निर्वाण संगमः । मिथ्यादृगोऽस्य जीवस्य संसारे भ्रमणं सदा ।। ४१ । भावार्थ- सम्यक्त्व सहित जीव को निश्चय से निर्धारण का लाभ है परन्तु जो मिथ्यात्वी है उस जीव का सदा ही संसार में भ्रमरण रहा करेगा ।
इन्द्रियप्रभवं सौख्यं सुखाभासं न तत्सुखम् । तच्च कर्म विवन्धाय दुःखदाने कपंडितम् ॥७७॥ रोषे रोषं परं कृत्वा माने मानं विधाय च । संगे संगं परित्यज्य स्वात्माधीन सुखं कुरु ॥१९१॥
भावार्थ- इन्द्रियों से होने वाला सुख सुखसा दिखता है परन्तु सच्चा सुख नहीं है, क्योंकि उससे अनेक दुःख देने में चतुर ऐसे कर्मों का बंध होता है । इसलिए क्रोध को कोध में व मान को मान में भिन्न जानकर रखदे व परिग्रह में परिग्रह को छोड़ दे और अपने आत्मा के आधीन प्रात्मा ही के पास जो सच्चा सुख है उसी का भोग कर ।
इस तरह का अपूर्व तत्त्व हे प्रभु ! प्रापने बताया है. इसलिये आपको बार-बार नमस्कार हो ।
छन्द श्रग्विनी
तन ग्रचेतन यही, और तिस योगते । प्राप्त सम्बन्ध में, प्रापपन मानते ।
जो क्षणिक वस्तु हैं, थिरपना देखते । नाग जग देव प्रभु, तत्त्व उपदेशते || १७||
उत्थानिका -- श्री अभिनन्दननाथ ने किस तरह तत्त्व का स्वरूप बताया
सो
कहते हैं