________________
UDAHARI
श्री अभिनन्दन जिन स्तुति यह जगत ( क्षतं ) नष्ट हो रहा है अर्थात् जगत के प्रारणी कष्ट उठा रहे हैं । उनही के उद्धार के कारण ( भवान् ) प्रापने ( तत्त्वम् ) यथार्थ जीवादि का स्वरूप ( अजिग्रहत् ) समझाया ।
भावार्थ-यहां पर यह दिखलाया है कि संसार के प्रारणी मिथ्यात्व के कारण महान कष्ट भोग रहे हैं। जो वस्तु जैसी नहीं है उसको वैसी मान लेना व सच्चे वस्तु स्वरूप पर श्रद्धा न लाना ही मिथ्या दर्शन है । यह शरीर प्रत्यक्ष भिन्न है । जड़ परमाणुओं के मिलने विछुड़ने से बनता बिगड़ता रहता है । इससे प्रात्मा चला जाता है तब वह दग्ध कर दिया जाता है, व गाड़ दिया जाता है तब भी यह मूढ़ जीव इसको अपना मान लेता है । इसमें अहङ्कार की बुद्धि कर लेता है कि मैं गोरा हूँ, सुन्दर हूँ, जवान हूँ, राजा हूं, सेठ हूँ, ब्राह्मण हूँ, क्षत्री हूँ, बलवान हूँ। तथा इसी जड़ शरीर के सम्बन्ध से ये संसारी जीव राग-द्वेष मोह करते हैं उनसे कर्मों का बंध होता है । कर्मों के उदय से सुख या दुःख की सामग्री प्राप्त होती है या स्त्री पुत्र मित्र सेवकादि का सम्बन्ध होता है, उनमें भी यह अज्ञानी जीव मेरेपने की बुद्धि कर लेता है कि यह ग्राम, नगर, वाग, वस्त्र, प्राभूषण, धन प्रादि मेरा है या यह स्त्री, पुत्र, पौत्र, पुत्री, सास, भौजाई, चाचा, ताऊ आदि मेरे हैं। इस तरह के अहङ्कार व ममकार के कारण ऐसा भूल जाता है कि जो शरीर व धन धान्यादि या स्त्री पुत्रादि का संयोग क्षणभंगुर है । या तो वे नाश हो जायेंगे या प्रापही को मर करके उनका सम्बन्ध छोड़ना पड़ेगा। तो भी यह मढ़ प्राणी उनको सदा बने रहने का निश्चय किये रहता है। दूसरों को तो देखता है कि अमुक का सम्बन्ध छटा अमुक मरा परन्तु अपना मरण पाने वाला है इसका किञ्चित् भी विचार नहीं करता है। इस मोहमई मदिरा के नशे में चर होकर यह अज्ञानी प्रारणी कभी भी आत्मा क्या वस्तु है, प्रात्मा में क्या-क्या अपूर्व गुरण भरे हैं, इन सबके जानने की तरफ लक्ष्य न देकर इच्छायो के दासत्व में उलझा हा व उनकी प्रति का यत्न करता हुया न पूर्ति में व पूर्ति होकर छुट जाने से उनके लिये शोक व दुःख मानता हुया महादीन व पाकुलित अवस्था में जीवन विताकर व पाप व पुण्य बांधकर नाना प्रकार चारों गति की योनियों में बार-बार जन्म पाकर वार-वार फष्ट उठाताहमा अपना महान बुरा कर रहा है। ग्रहकार व ममकार फा स्वरूप तत्वानुशासन में श्री नागसेन मुनि ने बहुत अच्छा कहा है- बदनात्मीय स्वतनुप्रमोसु फर्म ननितेषु । प्रात्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ॥१४॥ .. पे कर्मगाता मावा: परमार्थनयेन जात्मनो भिन्नाः । नयात्माभिनिवेगोकारोड यचा नरनिः ।।४11
भावार्थ--जो सदा ही श्वात्मा से जुदे हैं ऐसे शरीर व स्त्री पुत्रादि में जिनका