________________
स्वयंभू स्तोत्र टीका
..... (४) श्री अभिनन्दन जिन स्तुति ।
गुणाऽभिनन्दादभिनन्दनो भवान् दयावधूक्षांति-सखीमशिश्रयत्। समाधितन्त्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन चायुजत् ॥१६॥ .. अन्वयार्थ--( गुणाभिनन्दात् ) अनन्त ज्ञानादि गुणों का अभिनन्दन करने के कारण से ( भवान् ) आप ( अभिनन्दनः ) सच्चे सार्थक अभिनन्दन नामधारी चौथे तीर्थङ्कर हो । आपने ( शांतिसखीम् ) क्षमा रूपी सखी को धरने वाली ऐसी (दयावधू) अहिंसारूपी वधू को (अशिश्रियत्) आश्रय दिया है । आपने ( समाधितन्त्रः) आत्मध्यान रूप धर्मध्यान या शुक्लध्यान का उपाय किया (च) और ( तदुपोपपत्तये ) उसी समाधि भाव की प्राप्ति के लिये आपने अपने को ( द्वयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन) दोनों ही अन्तरङ्ग बहिरंग परिग्रह त्यागरूप निर्गन्यपने के गुरण से [अयुजत्] अलंकृत किया।
. भावार्थ---यहां पर प्राचार्य ने बताया है कि श्री अभिनन्दननाथ ने केवलज्ञानावि गुरणों को प्राप्त करके अपने नाम को सच्चा द्योतित किया तथा इस कार्य के लिये प्रभू ने अहिसा को पूर्णपने अपनाया। भाव अहिंसा को इतनी प्रबलता से धारण किया कि राग द्वेष क्रोधादि कषायों का किचित् भी आक्रमण अपने प्रात्मा में न होने दिया। द्रव्य अहिंसा को इतनी सूक्ष्म रीति से पाला कि किसी भी स्थावर व त्रस जीव की हिंसा से परहेज किया । प्रभू ने साधु अवस्था में पृथ्वी देखकर विहार किया । प्राशुक भूमि में दिन के ही प्रकाश में चले । वाहन का सम्बन्ध किया नहीं। रात्रि को भी मौन रहकर एकान्त में ध्यान किया। एक पत्ती को भी बाधा पहुंचाई नहीं, जगत मात्र के जोवों से अत्यन्त प्रेम किया । इसलिए सर्व प्रकार का गृहस्थी सम्बन्धी प्रारम्भ छोड़ दिया। अपने शरीर को रक्षा के हेतु वही भोजन पान स्वीकार किया जो किसी कुटुम्ब ने अपने लिये बनाया हो, उसी में से जो भाग दिया गया उसे लिया। अपने निमित्त जरा भी प्रारम्भ नहीं कराया न मनमें ही सोचा कि कोई आरम्भ करे । भिक्षावृत्ति से अचानक जिस गृहस्थ के घर पहुंच गए और उसने भक्ति सहित स्वागत करके हाथ में जो रख दिया उसे ही संतोष पूर्वक ते लिया। और अपने शरीर की स्थिति रखके प्रात्मध्यान का साधन किया। मुनियों का भिक्षा भ्रामरी वृत्ति कहलाती है। जैसे भ्रमर पुष्पों से रस लेता हुअा उनको किचित् भी वाधा नहीं पहुंचाता है, वैसे साधु, दातार गृहस्थ को जरा भी नाघा नहीं पहुंचाते हैं । न