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श्री संभव जिन स्तुति सकता है ( तथापि ) तो भी ( भक्त्या ) भक्ति की प्रेरणा से ( स्तुतपादपद्मः ) आपके घरणों की जो मैं स्तुति करता हूँ सो ( मम ) मुझे ( आर्य ) हे गुणों को आश्रय करने वाले परम प्रभु ( उच्चैः ) अतिशय करके (शिवताति) मोक्ष सुख की सन्तान को अर्थात निरन्तर मोक्ष सुख को ( देयाः ) प्रदान कीजिये ।
भावार्थ-यहां श्री समन्तभद्राचार्य ने प्रगट किया है कि हे संभवनाथ ! आपके प्रात्मीक व अलौकिक गुण हैं उनकी स्तुनि तो बड़े २ इन्द्र भी नहीं कर सकते। जो सर्व श्रुतज्ञान के धारी हैं प अवधिज्ञानी होते हैं उनका अनुभव तो आपको ही हो सकता है, दूसरा अल्पज्ञानी कैसे जान सकता है। जव जान ही नहीं सकता है तो उनका वर्णन ही कैसे किया जा सकता है। फिर मैं जो बहुत अल्प शास्त्र ज्ञान रखता है, कैसे आपकी स्तुति कर सकता हूँ। तथापि आपके गुरगों में जो मेरा भीतरी अनुराग है उस भाव की प्रेरणा से जो कुछ मैंने कहा है उससे मेरा यही प्रयोजन है कि मेरी भावना उत्तम हो तथा मैं स्वाधीन प्रात्मीक प्रानन्दामृत का पान करता रहा करूं। और मुझे कोई कामना नहीं है।
वास्तव में जो सम्यग्हष्टी होते हैं वे मात्र स्वानुभव की ही चाह रखते हैं, वे संसार के क्षणिक पदार्थों की चाह नहीं रखते हैं । वे स्वात्मानुभव के ही प्रयोजन से श्री जिनेन्द्र की भक्ति करते हैं। परमात्मा के गुणों का मनन परम कल्याणकारी है, उपयोग को निराकुल करने वाला है, यही भाव पात्रकेसरी स्तोत्र में झलकाया है
जिनेन्द्र ! गुणसंस्तुतिस्तव मनागपि प्रस्तुता । भवत्यखिलकर्मणां प्रहतये परं कारणम् ।। . इति व्यवसिता मतिर्मम ततोऽहमत्यादरात् । स्फुटार्थनयपेशलां सुगत सविधास्ये स्तुतिम् ।।१।।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! आपके गुणों का स्तवन यदि थोड़ा भी किया जावे तो वह सम्पूर्ण कर्मों के नाश के लिये कारण होता है ऐसा समझकर मेरो बुद्धि हुई है कि मैं अति भक्ति से हे सर्वज्ञ ! आपकी स्तुति स्पष्ट अर्थ व युक्ति को लिये हुए करूं।
भुजङ्गप्रयात छन्द . जहां इन्द्र भी हारता गुणकथन में । कहां शक्ति मेरी तुझी युति करनमें ।।
तदपि भक्तिवश पुण्य यश गान करता । प्रभू दीजिये नित शिवानन्द परता ।।१५।।
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