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. स्वयंभू स्तोत्र टीका जोव का परलोक होना व मुक्त होना बन ही नहीं सकता है । खेद है कि ऐसे एकान्तवादी अपने प्रात्मा को न समझने से अपने आपके भी वैरी हैं व दूसरों को ठीक स्वरूप न बताने के कारण वे दूसरों के भी वैरी हैं, अनेक स्वभाव मानने से ही पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष, .. लोक, परलोक की सिद्धि हो सकती है। इस अनेकांतका मंडन व एकान्त का खण्डन प्राप्त मीमांसा में व उसकी टीका अष्टशती तथा बड़ी टीका अष्टसहस्री में भले प्रकार किया गया है। श्री पात्र केशरी ने अपने स्तोत्र में एकान्त मत को दूषण देते हुए कहा है
परीपरिणामकः पुरुष इष्यते सर्वथा। प्रमाणविषयादितत्त्वपरिलोपनं स्यात्ततः ।। कषायविरहान्न चास्य विनिबंधनं कर्मभिः । कुतश्च परिनिर्वृत्ति: क्षणिकरूपतायां तया॥२१॥
भावार्थ-जो कोई प्रात्मा को सर्वथा नित्य परिणामी मानते हैं उनके मत में प्रमारण प्रमाता प्रमेय, ज्ञाता ज्ञान ज्ञय, स्वामी सेवक, अशुद्ध शुद्ध प्राटि तत्त्व कुछ नहीं बनेगा और न आत्मा के कभी कर्मों का बंध होगा, क्योंकि वह कभी क्रोधादि कषाय रूप होगा ही नहीं। और जब मोक्ष के योग्य भावों में परिणमन नहीं हो सकेंगा तब मोक्ष भी नहीं हो सकेगा। यही दोष उनके मत में भी प्राता है जो आत्मा को क्षणिक व अनित्य मानते हैं । जो वस्तु स्थिर नहीं रहती है उसमें कर्ता कर्म प्रादि कारक या बध या मोक्ष प्रादि बिलकुल नहीं बन सकते हैं। इसलिये हे संभवनाथ स्वामी ! हमने ऐसा निश्चय करके कि आप ही सच्चे वस्तु तत्त्व के उपदेशदाता हैं आपको पूज्य माना है। और हम प्रापको ही बार-बार नमस्कार करते हैं ।
भुजङ्गप्रयात छन्द जु है मोक्ष बन्धं, व है हेतु उनका । बंधा पर खुला जिय, फलं जो छुटनका ।।. प्रभू स्याद्वादी, तुम्हीं ठीक कहते । न एकांत मतके, कभी पार लहते ।।१४।।
उत्थानिका-स्तुतिकर्ता अपनी लघुता बताते हैंशकोऽप्यशक्तस्तव पुण्यकीतः स्तुत्या प्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः ।। तथापि भक्त्या स्तुतपादपद्मो ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः ।।१५।।
अन्वयार्थ-(शक्रः अपि) इन्द्र भी जो अवधिज्ञान व सई श्रतज्ञान का धारी होता है (पुण्यकीर्तेः) निर्मल कोतिधारी व पवित्र वारणी वाले (तव) आपकी (स्तुत्या प्रवृत्तः। स्तुति करने में उद्यम करता हया (अशक्तः) असमर्थ हो जाता है (किम्) तब (मादृशः) मेरे समान ( अज्ञः ) अज्ञानी जो सर्वश्रुत व अवधिज्ञान रहित है कैसे आपकी स्तुति कर