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श्री अभिनन्दन जिन स्तुति
वे अपने लिये खास बनाए हुए मकान मण्डप डेरे इत्यादि में ठहरते हैं । जैसे उनको उद्दिष्ट प्राहार का त्याग होता है वैसे उनको उद्दिष्ट वस्तिका स्थान का त्याग होता है । इसीलिए कि उनके निमित्त कुछ भी हिंसा न हो। श्री मूलाचार में कहा है-- णवकोडी परिसुद्धदसदोस विवज्जिय मलविसुद्ध। भुजन्ति पाणिपत्तं परेण दत्तं परघरम्मि ॥११॥
भावार्थ-मुनि मन वचन कायसे, कृत कारित अनुमोदना के दोष से रहित दश दोष व १४ मलसे रहित दूसरे के घर में दूसरे से दिये जाने पर अपने हाथ के पात्र में भोजन करते हैंगिरिकदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं विरागबहुलं घीरो भिवखु णिसेवेऊ ।।६५०।।
. भावार्थ-साधु पर्वत की गुफा, मसानभूमि,शून्य घर (उजाड़ हो व उनके निमित्त न किया गया हो) व वृक्ष के नीचे, ऐसे वैराग्य से पूर्ण स्थानों में ठहरते हैं ।
इस अहिंसा की सिद्धि के लिये क्षमा को मुनिगण सहचरी या सखी बनाते हैं । इसका भाव यह है कि लाख कष्ट पाने पर व घोर परीसह व उपसर्ग पड़ने पर भी साधुगरण क्रोध भाव को चित्त में नहीं लाते हैं। जहां क्षमा सहित अहिंसा है वहीं मुनिधर्म पलता है। कर्मों का नाश, बिना पूर्ण वीतरागता के नहीं हो सकता है । पूर्ण वीतरागता शुद्धो. पयोग मई समाधि भाव में प्राप्त होती हैं। उसके लिए ममता व इच्छा का त्याग करना होता है। इसीलिये साधुपद में निर्ग्रन्थपन की जरूरत है। जिसमें यह आवश्यक है कि अंतरंग परिग्रह १४ प्रकार व बाह्य परिग्रह १० प्रकार त्याग दिये जावे । क्रोध,मान,माया, लोभ, हास्य, रति, प्ररति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष, नपुसकवेद, मिथ्यात्त्व ये १४ अन्तरंग परिग्रह हैं । क्षेत्र, मकान, धन, धान्य, चांदी, सुवर्ण, दासी, दास, कपड़ा, वर्तन ये दस बाहरी परिग्रह हैं। निर्ग्रन्थ साधु इसीलिये वस्त्रादि का भी त्यागकर नग्न हो जाते हैं कि वस्त्र सम्बन्धी प्रारम्भ व परिग्रह न करना पड़े। व शरीर का सुखियापना टले व शरीर को सरदी, गरमी, डांस, मच्छर, लज्जा प्रादि परीसह शान्त भाव से सहना पड़े व इतना प्रात्मबल बढ़ जावे कि इन परीसहों के होते हुए भी प्रात्मा में चित्त एकार रह सके । तथा प्राकृतिक रूप में रहकर वस्त्रों की भी आवश्यकता को मिटा दिया जाये। जहां तक वस्त्र त्याग का पूर्ण भाव न आवे वहां तक जैन चारित्र ग्रयों में ग्यारह प्रतिमा तक श्रावक व्रत पालने का उपदेश है । ग्यारहवीं प्रतिमा या श्रेणी में एक शरीर प्रमाण से छोटी बहर व
लंगोट रखने वाला क्षल्लक व केवल लंगोट रखने वाला ऐलक कहलाता है। ये दोनों ___ एकाहारी व साधूदद भिक्षाचारी व संतोषी होते हैं। इन श्रेणियों में धीरे-धीरे वस्त्र का