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. स्वयंभू स्तोत्र टीका
शीतल गंगा कुण्ड में गोता लगाने से दुःख रहित शांत हो जाते हैं । व्यवहार मुनि व गृहस्य धर्म जो कुछ श्री जिनेन्द्र भगवान ने बताया हैं वह भी इसी हेतु से कि वह. साधक किसी तरह निश्चय धर्म जो स्वात्मानुभव है उसको प्राप्त करले। दशलक्षणी धर्म व व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सब निश्चय धर्म के लिये ही साधन किये जाते हैं। यदि निश्चय धर्म न हो तो वे सब व्यवहार धर्म वृथा हैं-मोक्ष के साधक नहीं हैं।
__ श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैंमोत्तण णिच्छय ववहारेण विदुसा पवट्टन्ति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खनो विहिप्रो । १५६
भावार्थ-निश्चय आत्म स्वरूप को छोड़कर विद्वान साधु मात्र व्यवहार धर्म में नहीं चलते हैं क्योंकि जो यतिगण परमार्थ जो स्वानुभव है उसको आश्रय करते हैं, उन्हीं के कर्मों का क्षय होता है । श्रीनागसेन मुनि तत्त्वानुशासनमें निश्चयधर्म को बताते हैंदिधासुः स्वं परं ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थिति । विहायान्यदनथित्वात् स्वमेवातु पश्यतु ।।१४३॥
भावार्थ-ध्यान करने वाला प्रात्मा स्व परको जानकर व यथार्थ भद्धान करके परको छोड़कर प्रात्मा को ही जाने व देखे । यही यथार्थ स्वानुभव दशा है ।
इण्टोपदेश में श्री पूज्यपाद आचार्य कहते हैंअविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञान मयं महत् । तत्प्रष्ट व्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षभिः ॥४६॥
भावार्थ-अज्ञानसे दूर वही महान प्रात्मज्योति ज्ञानमई परम उत्कृष्ट है उसी के सम्बन्ध में प्रश्न करे, उसी की भावना करे व उसी का ही अनुभव करे । मोक्ष के वांछको का यही कर्तव्य है।
मालिनी छन्द जिसने प्रगटाया, धर्म भव पार कर्ता, उत्तम अति ऊचा, जान जन दुख हरता। चन्दन सम शीतल, गंग ह्रदमें नहाते, बहुधाम सताए, हस्तिवर शांति पाते ।६।।
उत्थानिका--क्या भगवानने किसी फलको उद्देश में रखकर धर्म तीर्थका प्रकाश किया था? इस पर स्तुतिकार कहते हैं--
स ब्रह्मनिष्ठः सममित्रशत्रुविद्याविनिन्तिकषायदोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिनः श्रियं मे भगवान विधत्तां ॥१०॥
अन्वयार्थ-इस श्लोक में यह दिखाते हैं कि भगवान ने कोई फलफी इच्छा नही की । (सः) वह अजितनाथ भगवान (ब्रह्मनिष्ठः) सर्व दोष रहित अपने परमात्मस्वभाव