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________________ श्री अजितनाथ स्तुति १७ पदार्थों को विषय करने वाले (ज्येष्ठ) व सर्व से उत्तम ऐसे (धर्मतीर्थं ) उत्तम क्षमावि रूप व रत्नत्रय लक्षण रूप धर्म को जो संसार-समुद्र से पार करने के लिये तीर्थ रूप है (प्रणीतं वर्णन किया है । [ प्राप्य) जिसको समझ कर ( जनाः ) भव्य जीव ( दुःखं) संसार भ्रमण के क्लेश को (जयंति ) जीत लेते हैं अर्थात् संसार से पार हो जाते हैं. (इव) जैसे ( घर्मतप्ताः ) तीव्र गर्मी के दुःख से पीड़ित ( गज़प्रवेका) बड़े २ हाथी (चंदनपंकशीतं ) चंदन की कीचड़ के समान शीतल ( गांगं हृदं) गंगा के कुण्ड को ( प्राप्य दुःखं जयन्ति ) पाकर व उसमें नहाकर अपने क्लेश से छूट जाते हैं व शांति पा लेते हैं । भावार्थ - यहां पर प्राचार्य ने यह श्राशय प्रगट किया है कि भगवान श्री अजितनाथकी जो दिव्यध्वनि प्रगट हुई उसमें सर्वोत्तम व महान धर्मका स्वरूप प्रगट किया गया। तीर्थंकर भगवान का नाम तब ही सार्थक होता है जब वे उस तीर्थको प्रकाश करते हैं जिसको स्वीकार कर भव्य जीव संसार समुद्र से पार हो जावें । वह तीर्थ एक धर्म है । सर्वज्ञ भगवान वीतराग हैं अतएव उन्होंने जो कुछ धर्म का सच्चा स्वरूप था उसे ही दिखाया है । उसमें कभी कोई बाधा नहीं आ सकती है । तथा वह नियम से मोक्ष द्वीप को प्राप्त कराने वाला है । । निश्चयनय से वह धर्म श्रात्मा का निज स्वभाव है । जव श्रात्मा अपने श्रात्मा को सर्व परद्रव्य, परभाव व परके निमित्त से होने वाले विभाव उन सबसे भिन्न एक मूर्ती अखंड ज्ञान दर्शन सुख वीर्यं श्रादि शुद्ध गुणोंका एक श्रमिट समूह रूप श्रविनाशी ऐसा समझता है और उस रूप ही विश्वास करता है तथा सर्व से रागद्वेष छोड़ कर एक अपने ही यथार्थ स्वरूप में तन्मय होता है उस समय निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व निश्चय चारित्र रूप एक अपने श्रात्मा का ही स्वानुभवगोचर भाव प्रपने में झलकता है । यही स्वसंवेदन ज्ञान रूप घ्रात्मीक शुद्ध भाव है । वह ही धर्मतीर्थ है जिससे संसार के कारण रागद्व ेष व कर्म बंध स्वयं कट जाते हैं और यह आत्मा शुद्ध होते होते परमात्मा हो जाता है । इस स्वानुभव रूप धर्म से बढ़कर कोई महान धर्म नहीं है । जब तक इसको न पावे, लाख तरह का लाखों वर्ष तप जप किया जावे वह कभी मोक्ष नहीं प्राप्त करा सकता है । यह धर्म स्वानुभवगोचर है । इसे कोई खण्डन नहीं कर सकता है । इसी धर्म को गंगा कुण्ड की उपमा दी है । जो संसारी भवाताप से उग से अत्यन्त दुखी हैं. मिथ्यात्व के कारण भववनमें भटकते हुये जब इस स्वात्मानुभव रूप धर्म में गोता लगाते हैं तो परम शांत को जीत लेते हैं, बड़े हो सुखी हो जाते हैं । जैसे धूप से सताये बड़े २ हाथो हो जाते पीड़ित है, तृष्णा के संतापित हो रहे हैं वे हैं, सर्व दुःखों चंदन समान 1
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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