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श्री अजितनाथ स्तुति
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में तल्लीन हैं (सममित्रशत्रुः) उनके लिये शत्रु व मित्र समान हैं अर्थात् वे परम, वीतरागी हैं । (विद्याविनिर्वातकषायदोषः ) जिन्होंने श्रात्मज्ञानकी व श्रात्मध्यान की कला के प्रकाश से अपने क्रोधादि कषायों को व सर्व दोषों को अर्थात् ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को नाश कर डाला है ( लब्धात्मलक्ष्मीः ) व जिन्होंने अनन्त ज्ञान दर्शन सुखवीर्यमई प्रपनी अंतरंग लक्ष्मीको प्राप्त कर लिया है ( जितात्मा ) व जो इंन्द्रिय विजयी व आत्माधीन हैं (जिनः ) व कर्मोंको जीतनेवाले वीर हैं ( भगवान् ) ऐसे विशेष ज्ञानवान व पूजनीय (अजितः ) अंतरंग वहिरंग शत्रुत्रों से न जीतेजानेवाले श्री अजितनाथ महाराज ( मे ) मुझ समन्तभद्रको ( श्रियं) अनंत ज्ञानादि लक्ष्मी (विधत्ताम् ) प्राप्त करने में सहायक हों ।
भावार्थ - यहां यह बताया है कि श्री अजितनाथ तीर्थंकर को केवलज्ञान का लाभ हो जाने पर किसी तरह की इच्छा नहीं हो सकती। क्योंकि उनका उपयोग जो अल्पज्ञानी की दशा में इन्द्रिय व मनके द्वारा काम करता था सो उपयोग अपने ब्रह्म स्वरूप श्रात्मा में मगन व लीन होरहा है। इससे कोई संकल्प विकल्प उठने की जगह ही बाकी नहीं रही है । श्रात्मरूप होनेसे वे परम वीतरागी हैं। कोई शत्रुता करे तो उस पर क्रोध नही करते, कोई प्रशंसा करे व मित्रता करे तो उस पर राग नहीं करते । इसका भी काररण यही है कि भेद विज्ञान द्वारा प्राप्त स्वात्मानुभव के द्वारा उन्होंने सर्व क्रोधादि कषायों को व ज्ञा. नादि के दोषों को व सामान्य से चार घातियां कर्मोंको नाश कर डाला है और अपने श्रात्मीक धनको प्राप्त कर लिया है तथा श्रात्मीक सुखके भोग में परम आशक्त हैं । उन्होंने सर्व इच्छाओंको व सर्व कर्मोंको जीत लिया है, उनका कोई सामना करनेवाला नहीं रहा । इसीलिये भगवानने अपने प्रजित नामको सफल किया है । साक्षात् परमात्मा स्वरूप होकर प्रभुने पूर्व ज्ञान व पूर्व श्रानंदका लाभ किया है । श्री समन्तभद्राचार्य भावना भाते हैं कि मैं उनकी स्तुति करके यही चाहता हूँ कि उन हो के गुरणानुवाद से व उन ही के उपदेश में मैं स्वयं श्रात्मस्थ हो जाऊं व अपने कर्म - शत्रुनोंको बिजय करके अनंतज्ञानादि लक्ष्मीको प्राप्त करके उन हो के समान ही अरहन्त होजाऊं । और में किसी क्षणभंगुर वस्तुको चाह नहीं रखता । वास्तव में वीतराग भगवान कथित जिन धर्मकी यही आज्ञा है कि मानवका ध्येय स्वात्मस्वरूपकी प्राप्ति ही होना चाहिये । यही मोक्ष है, यही तिज स्वभाव है और इसी ही हेतु से निश्चय व व्यवहार धर्मका साधन करना चाहिये । यही वीतरागभाव परमानंदका दाता है व आत्माको परमात्म-पद में स्थापन करानेवाला है । वास्तव में श्री जिनेन्द्र के गुणोंका स्तवन अपने ही प्रात्मका स्तवन है । इसीलिये यद्यपि वह राग
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