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स्वयंभू स्तोत्र टीका
जहां यह माना जायगा कि परमात्मा का नाम लेंगे तो वह प्रसन्न होकर हमारा काम कर देगा अथवा नाम लेनेसे प्रवश्य काम हो ही जायगा, वहां पर सम्यक्त्व भाव बिगड़ जाता है । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी नाम व गुरण स्मरणसे कोई शर्त नहीं बांधता है । वह उदासीन भाय से अपना कर्तव्य करता है । यदि कार्य सफल होगया तो समझता है कि पाप कर्म हलका था, वह मङ्गलाचरण से टल गया। यदि काम सफल न हुआ तो कुछ खेद नहीं मानता है । वह जानता है कि अंतराय कर्म तीव्र था इससे नहीं टला । जैसे- प्रवीरण रोगी औषधि सेवन करता है, श्रौषधि कभी पूरा गुण करती है, कभी कम गुण करती है, कभी गुण नहीं करती हैं । यदि गुण नहीं करती है तो वह रोगी यही समझता है कि रोगकी प्रबलता है इससे गुण नहीं हुआ। वह श्रौषधि बनानेवाले को दोषी नहीं ठहराता है। यदि रोग शमन हो गया तो औषधि का असर मात्र हुआ ऐसा मानता है, श्रौषधि बनानेवाले को कोई अद्भुत करामात नहीं समझता है । परम पूज्य पुरुषों के नाम व गुरण का स्मरण श्रद्धा व ज्ञान पूर्वक किया हुआ पाप-शमन व पुण्य--बंध का साधन है । संसारी रोगी प्राणी अपने पाप के शमन के लिये निरन्तर भगवान की नाम रूपी औषधि सेवन किया करता है । नाम मात्र ही लेने से पाप गलते हैं । गुणों के स्मरण की तो बात ही निराली है । श्रीमानतुरंगाचार्य भक्तामर स्तोत्र में कहते हैं--.
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ग्रास्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ॥ दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥६॥
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भावार्थ - हे प्रभु ! श्रापकी स्तुति तो सर्व रागादि दोषों को दूर करने वाली है, श्रापकी तो बात ही क्या ! वह तो दूर रही श्रापका नाम मात्र ही जीवों के पापों को नाश कर डालता है । सूर्य की किरणों का प्रकाश तो दूर हो रहो, उनका सबेरे के समय कुछ उजाला सरोवरों के भीतर कमलों को प्रफुल्लित कर देता हैं, उनका उदासीनपर दूर हो जाता है । इसलिये श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि हे अजितनाथ भगवान ! श्रापका नाम ग्रात्मसिद्धि करने में व नाम लेने वाले के इष्ट प्रयोजन की सिद्धि करने में परम सहायक है । यद्यपि प्राप वीतराग भक्त पर कुछ भी अनुग्रह नहीं करते तथापि श्रापके नाम व गुण स्मरण में यह शक्ति है कि विना आपकी श्रात्मा के दखल दिये ही भक्त का पाप कट जाता है व उसे पुण्य का संचय होता है तथा आत्मानुभव की जागृति का निमित्त हो जाता है ।
मालिनी छन्द |
प्रय भी जग लेते नाम भगवत् प्रजितका सत् शिवमगदाता वर प्रजित तीर्थकर का मंगल कर्ता है परमशुचि नाम जिनका, निज कारजका भी लेत नित नाम उनका ॥७॥