________________
श्री अजितनाथ स्तुति.
उत्थानिका - किसलिये प्रभु कर्मबन्धको क्षय करके सर्वज्ञ हुए इस बात को
बताते हैं-
यः प्रादुरासीत्प्रभुशक्तिभूम्ना भव्याशयालीनकलङ्कशान्त्यै । महामुनि क्तघनोपदेहो यथारविन्दाभ्युदयाय भास्वान् ॥८॥
१५
श्रन्वयार्थ सह भाषा टीका - ( यथा ) जैसे (मुक्तघनोपदेहः) बादलों के प्राच्छादन से छूटकर ( भास्वान् ) सूर्य ( अरविन्दाभ्युदयाय ) कमलों के विकास के लिये उदासीनपने निमित्त कारण हो जाता है । उसी तरह ( यः महामुनिः ) वे अजितनाथ भगवान प्रत्यक्ष ज्ञानी या गणधरों के स्वामी परम स्नातक ( प्रभुशक्तिभूम्ना) जगत का उपकार करनेवाली अपनी वाणी के महात्म्य से अर्थात् अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जीवादि पदार्थों का सत्य स्वरूप का प्ररूपण करके उस परम पवित्र शासन के प्रभाव से ( भव्याशयालीनकलंकशान्त्यै) भव्यों के चित्त में जो अज्ञान व रागादि कलंक लगा हुआ था व उनका कारण ज्ञानावरणादि कर्मबंध था उसके नाश के लिये ( प्रादुरासीत् ) प्रकाशमान हुए ।
भावार्थ - जैसे सूर्य स्वयं ही जब बादलों से ढका होता है तब उसका प्रकाश छिपा रहता है परन्तु जब मेघ चले जाते हैं तब वह स्वयं प्रकाशमान हो जाता है । वह सूर्य अपने स्वभाव में काम करता रहता है । वह यह नहीं चाहता है कि मेरे प्रकाश से अंधकार टले व कमल प्रफुल्लित हों परन्तु ऐसा कुछ निमित्त नमित्तिक वस्तु का स्वभाव है कि जब सूर्य का प्रकाश होगा तब अंधकार मिटे हो गा व कमलों का वन फूले ही गा । वैसे श्री अजितनाथ भगवान श्रपने ज्ञानावररणादि कर्मों का नाश कर व केवलज्ञानी श्ररहंत परमात्मा होकर भाप ही प्रकाशमान हुए । परन्तु उनके प्रगट होने से यह वस्तु का स्वभाव है कि उनका तो प्रज्ञान मिटा हो परन्तु जगत का भी प्रज्ञान मिटा य भव्य जीवों को परम प्रसन्नता हुई । जैसे सूर्य की किरणें स्वभाव से ही फैलती हैं वैसे प्ररहंत भगवान की दिव्यध्वनि स्वभाव से ही प्रगट होती हैं । उसको सुनकर भव्यजीवों के अभिप्राय में जो मिथ्यात्वका कलंक था जिससे वे अपने श्रात्मा के स्वरूप से विमुख थे व अनात्मा की तरफ सन्मुख थे व जिससे वे इन्द्रिय विषय सुख के लोलुपी थे व प्रतीन्द्रिय प्रात्मिक सुख के भोग से शून्य थे, वह कलंक दूर हो जाता है । तथा उनका पाप गल जाता है और ये उस सच्चे रत्नत्रय रूपी मोक्ष मार्ग को पा लेते हैं, जिसके ऊपर चलके वे भी श्री प्ररहत परमात्मा के समान अपना कर्म कलंक मिटाकर परमात्मा हो जाते हैं ।
14