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स्वयंभू स्तोत्र टीका अजित थे । उनको न तो बाहरी कोई शत्रु जीत सकता था और न मोह जीत सकता था। वे मोहको जीतकर परम शुद्ध सम्यग्दर्शी महात्मा थे।
तीर्थंकरादि सर्व उच्चपद व अद्भुत साताकारी सामग्री सब पुण्य के उदय से ही प्राप्त होती है जैसा आत्मानुशासन में कहा हैधर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थसौख्यानि । संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युच्चिनु यस्तैरुपायैस्त्वम् ॥१६॥
भावार्थ-जितने इन्द्रिय भोग सम्बन्धी पदार्थ व सुख हैं सो सर्व धर्मरूपी उपवन के वृक्षों के फल हैं । इसलिये तुमको उचित है कि अनेक उपायों से धर्मवृक्ष की रक्षा करो। शुद्धोपयोग धर्म में जितने अंश शुभोपयोग रहता है वह पुण्य बंध का कारण है ।
__ मालिनी छन्द । दिविसे प्रभु पाकर जन्म जव मात लीना । घरके सब बन्धू मुख कमल हर्ष कोना ।। कीडा करते भी जिन विजय पूर्ण पाई । अजित नाम रक्खा जो प्रगट अर्थदाई।।६।।
उत्थानिका--भव्यजीव अपने इष्ट प्रयोजनकी सिद्धि के लिये प्राज भी श्री अजित. नाथ का नाम लेते हैं. ऐसा कहते हैं
अद्यापि यस्याजितशासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमङ्गलार्थम् । प्रगृह्यते नाम परम पवित्र स्वसिद्धिकामेन जनेन लोके ॥ ७ ॥
अन्वयार्थ-(अद्यापि) प्राज भी (लोके) इस लोक में (स्वसिद्धिकामेन जनेन) अपने आत्मा की सिद्धि को व अपने इच्छित प्रयोजनको सिद्ध करने की इच्छा रखनेवाल मानव द्वारा (अजितशासनस्य) जिसका मत अनेकांत होने से दूसरों के द्वारा पराजित नहीं हो सकता (सतां प्रणेतुः) व जो भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में प्रवर्तन कराने वाला है (यस्य) ऐसे भगवान अजितनाथ का ( परम-पवित्रं नाम ) परम पवित्र अर्थात् सर्व पाप मलके दूर करने का कारण ऐसा शुभ नाम (प्रतिमंगलार्थ) मंगल होने के अर्थ व इष्टकाय की सिद्धि के निमित्त (प्रगृह्यते) लिया जाता है।
. भावार्थ-यहां पर यह बताया है कि धन्य है श्री अजितनाथ भगवान का पवित्र प्रात्मा जिनके गर्भ में आते ही उनके कुटुम्ब को परम सिद्ध हई व जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर अनेक जीवोंको मोक्षमागं बताया व जव श्री अजितनाथ हुए तयसे बराबर जिन्होंने उनका पाराधन किया उनका कल्याण हुआ। आज भी इस पंचमकाल में जा कोई अपने आत्मा का हित सिद्ध करना चाहते हैं उनको श्री अजितनाथका नाम स्मरण