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श्री अजितनाथ स्तुति
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॥ श्री ऋषभदेव भगवान की बार-बार स्तुति करके अपने आपको कृतार्थ व पवित्र मान रहा का हूँ। ऐसी भावना श्री समन्तभद्राचार्य जी कर रहे हैं। ..
.. गीता छन्द जो माभिनन्दन सृषभ जिन सय कर्म मल मे रहित हैं । जो ज्ञान तन धारी प्रपूजित साधुजन कर सहित हैं। .. जो विश्वलोचन मघु मतोंको जीतते निज ज्ञान से । सो आदिनाथ पवित्र कीजे मात्म मम अघ खानसे १५॥
(२) श्री अजितनाथ स्तुतिः यस्य प्रभागात् त्रिदिवच्युतस्य नीडास्वपि क्षीवमुखारनिन्दः । प्रजेयशक्ति नि बन्धुवर्गश्चकार लामाजित इत्यवन्ध्यम् ॥६॥
. अन्वयार्थ- (यस्य त्रिदिवच्युतस्य प्रभावात्) जिस स्वर्ग से च्युत होकर जन्म लेने । वाले भगवान के महात्म्य से ( क्रीड़ासु अपि अजेयाशक्तिः ) महायुद्ध की तो बात ही क्या । खेल-क्रीड़ा में भी दूसरे से न जीती जानेवाली शक्ति को प्राप्त करने वाले (क्षीवमुखारविन्दः) :: तथा अपने मुख कमल को हर्षित रखने वाले ( बन्धुवर्गः ) बंधु समूह ने ( भुवि ) इस : लोक में ( अजित इति नाम ) उन भगवान का प्रजित ऐसा नाम (अवन्ध्यम ) सार्थक (चकार ) रखा।
भावार्थ---इस श्लोक में प्राचार्य ने बताया है कि कोई शुद्ध ईश्वर परमात्मा कभी कहीं अफ्तार नहीं लेता है। यही संसारी जीव उन्नति करते-करते उच्च पद में प्राकर जन्म धारण कर लेता है। श्री अजितनाथ तीर्थकर जो ऋषभदेव के बहुत काल पीछे क्षत्रिय वंश में जन्मे थे, विजय नाम अनुत्तर विमान से प्राए थे। उसके पहले भद में वेबडे तपस्वी श्री विमलवाहन मुनि थे । उत्तम शुभोपयोग के कारण उन्होंने महापुण्य बन्ध किया पा। जब वे अपनी माता के गर्भ में पाए तब इनके पुण्य के बल से सर्व कुटुम्न का भी तोन पुण्य उदय में प्रागया और उनको हर प्रकार विजय ही मिलने लगी। युद्ध में तो विजय मिलती ही थी, खेल कूद में भी वे विजय पाने लगे तथा उनका मुख पहले से वहत अधिक प्रसन्न रहने लगा । जहां पुण्याधिकारी हों यहां सुख का सामान क्यों न हो? इसी कारण बड़े प्रभावशाली तीर्थकर नाम कर्म को रखने वाले प्रात्मा का नाम अजित रवाना गया । प्राचार्य कहते हैं कि यह नाम निक्षेप से न था किन्तु सार्थक था। प्रभु वास्तव में