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परमात्म प्रकाश वरज्ञानिनः) जो महान् ज्ञानके धारक (परमार्थ) परम अर्थको' (बुध्यते) जानते हैं, वे पण्डितजन (मम क्षाम्यंतु) मेरे ऊपर.क्षामा करें ।
भावार्थ-मेरी छद्मस्थकी बुद्धि है, जो कदाचित् मैंने शब्दमें; अर्थमें, तथा छन्द अलंकार में, अयुक्त कहा हो, वह मेरा दोष क्षमा करो, सुधार लो, जो विवेकी परम अर्थको अच्छी तरह जानते हैं। वे मुझपर कृपा करो, मेरा दोष न लो। यह प्रार्थना योगीन्द्राचार्यने महामुनियोंसे की। जो महामुनि अपने शुद्ध स्वरूपको अच्छी तरह अपने में जानते हैं । जो निजस्वरूप रागादि दोष रहित अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्यकर सहित हैं, ऐसे अपने स्वरूपको अपने में ही देखते हैं, जानते हैं, और अनुभवते हैं, वे ही इस ग्रन्थके सुनने के योग्य हैं. और सुधारने के योग्य हैं ।।२१२॥ .. .. इति सूत्रत्रयेणः सप्तममन्तरस्थलं गतम् । एवंसप्तभिरन्तरस्थलैश्चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितं महास्थलं समाप्तम् । ... अथैकवृत्वेन प्रोत्साहनार्थ पुनरपि फलं दर्शयति..... ..... .
जं तत्तं णाण-रूवं परम-मुणि-गणा णिच झायंति चित्ते,... जं तत्तं देह-चत्तं णिवसइ भुवणे सव्व-देहीण देहे ।। जं तत्तं दिव्व-देहं तिहुवर्ण-गुरुंगं सिंज्झए संत-जीवे,'.. तं तत्तं जस्स सुद्धं फुरइ णिय-मणे पावए सोहि सिद्धिं ॥२१३। यत् तत्त्वं ज्ञानरूपं परममुनिगणा नित्यं ध्यायन्ति चित्त, .. यत् तत्त्वं देहत्यक्तं निवसति भुवने सर्वदेहिनां देहे । यत् तत्त्वं दिव्यदेहं त्रिभुवनगुरुक सिध्यति शान्तजीवे, तत् तत्त्वं यस्य शुद्ध स्फुरति निजमनसि प्राप्नोति स हि सिद्धिम् ।।२१३।।
इस प्रकार तीन दोहोंमें सातवां अन्तरस्थल कहाँ । इस तरह चौबीस दोहोंका महास्थल पूर्ण हुआ। धान आगे एक स्रग्धरा नामके छन्दमें फिर भी इस ग्रन्थके पढ़नेका फल कहत हैं- (तत् ) वह ( तत्त्व) निज आत्म-तत्त्व (यस्य निजमनसि ) जिसके मनम (स्फुरति) प्रकाशमान हो जाता है, (स. हि) वह ही साधु (सिद्धि प्राप्नोति) सिद्धिका पाता है। कैसा है, वह तत्व ? जो कि (शुद्ध) रागादि मल रहित है, (ज्ञानरूप)