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औरें नामरूप है, जिसको (परममुनिगरगाः) परममुनीश्वर ( नित्यं ) सदा (चित्त) ध्यायंति) अपने चित्त में ध्याते हैं, ( यत् तत्त्वं ) जो तत्त्व ( भुवने) इस लोक में (सर्वदेहिनां देहे ) सब प्राणियों के शरीर में ( निवसति ) मौजूद है, ( देहत्यक्त ) और आप देह से रहित है, ( यत् तत्त्वं ) जो तत्त्व ( दिव्यदेहं ) केवलज्ञान और आनन्दरूप अनुपम देहको धारण करता है, ( त्रिभुवनगुरुकं ) तीनभुवन में श्रेष्ठ है, (शांतजीवे सिध्यति ) जिसको आराधकर शान्तपरिणामी सन्तपुरुष सिद्धपद पाते हैं ।
परमात्मप्रकाश
भावार्थ - ऐसा वह चैतन्यतत्त्व जिसके चित्तमें प्रगट हुआ है, वही साधु सिद्धिको पाता है । अव्याबाध अनन्तसुख आदि गुणोंकर वह तत्त्व तीन लोकका गुरु है, सन्तपुरुषों के ही हृदयमें वह तत्त्व सिद्ध होता है । कैसे हैं संत ? जो अपनी बड़ाई, अपनी प्रतिष्ठा और लाभादि समस्त मनोरथों और विकल्पजालोंसे रहित हैं, जिन्होंने अपना स्वरूप परमशान्तभावरूप पा लिया है ।।२१३॥
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treat मङ्गलार्थमाशीर्वादरूपेण नमस्कारं करोतिपरम-पय- गयाणं भासो दिव्त्र कात्री, मसि मुविराणं सुक्खदो दिव्त्र-जोधो । विसय- सुह-रयाणं दुल्लहो जो हु लोए, जयउ सिव- सरूवो केवलो को वि वोहो ॥ २१४॥
परमपदगतानां भासको दिव्यकायः
मनसि मुनिवराणां मोक्षदो दिव्ययोगः । विषयसुखरतानां दुर्लभो यो हि लोके, जयतु शिवस्वरूपः केवलः कोऽपि वोधः ॥ २१४॥
आगे ग्रन्थके अन्तमङ्गलके लिये आशीर्वादरूप नमस्कार करते हैं - (दिव्यफाय: ) जिसका ज्ञान आनन्दरूप शरीर है, अथवा (परमपदगतानां भासकः ) अरहन्तपदको प्राप्त हुए जोवोंका प्रकाशमान परमोदारिकशरीर है, ऐसा परमात्मतत्त्व ( जयतु ) सर्वोत्कृष्टपने से वृद्धिको प्राप्त होवे । जो परमोदारिकशरीर ऐसा है, कि जिसका तेज हजारों सूर्योसे अधिक है, अर्थात् सकल प्रकाशी है । जो परमपदको प्राप्त हुए केवली हैं, उनको तो साक्षात् दिव्यकाय पुरुषाकार भासता है, (मुनिवराणां ) और जो महा