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परमात्मप्रकाश
[२८५ - अथ श्रीयोगीन्द्रदेव गौद्धत्यं परिहरति- . .
इत्थु ण लेवउ पंडियहिं गुण-दोसु वि पुणरुत्त । भट्ट-पभायर-कारणइं मई पुणु पुणु वि पउत्तु ॥२११॥ अत्र न ग्राह्यः पण्डितैः गुणो दोषोऽपि पुनरुक्तः ।
भट्टप्रभाकरकारणेन मया पुनः पुनरपि प्रोक्तम् ।।२११।।
आगे श्रीयोगोन्द्रदेव उद्धतपनेका त्याग दिखलाते हैं- (अत्र) श्रीयोगीन्द्रदेव कहते हैं, अहो भव्यजीवो, इस ग्रन्थमें (पुनरुक्तः) पुनरुक्तिका (गुणो दोषोऽपि) दोष भी (पंडितः) आप पण्डितजन (न ग्राह्यः) ग्रहण नहीं करें, और कवि-कलाका गुण भी न लें, क्योंकि (मया) मैंने (भट्टप्रभाकर कारणेन) प्रभाकरभट्टके सम्बोधनेके लिये ( पुनः पुनरपि प्रोक्त) वीतराग परमानन्दरूप परमात्मतत्त्वका कथन वारबार किया है।
भावार्थ-इस शुद्धात्म-भावनाके ग्रन्थमें पुनरुक्तका दोष नहीं लगता। समाधितन्त्र ग्रन्थकी तरह इस ग्रन्थमें भी बार-बार शुद्ध स्वरूपका ही कथन किया है, वारम्बार उसी अर्थका चिन्तवन है, ऐसा जानकर इसका रहस्य [अभिप्राय] बारवार चिन्तवना। प्रभाकरभट्टको मुख्यताकर समस्त जीवोंको सुखसे प्रतिबोध होने के लिये इस ग्रन्थमें बार-बार बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्माका कथन किया है, ऐसा जानना ॥२१॥
अथजं मई कि पि विजंपियउ जुत्ताजुत्तु वि इत्थु । तं वर-णाणि खमंतु महु जे बुज्झहिं परमत्थु ॥२१२॥ यन्मया किमपि विल्पितं युक्तायुक्तमपि अत्र ।। तदु वरज्ञानिनः क्षाम्यन्तु मम ये बुध्यन्ते परमार्थम् ।।२१२।।
आगे श्रीयोगोन्द्राचार्य ज्ञानीजनोंसे प्रार्थना करते हैं, कि मैंने जो किसी जगह छन्द अलङ्कारादिमें युक्त अयुक्त कहा हो, तो उसे पण्डितजन परमार्थके जाननेवाले मुझपर क्षमा करें-(अत्र) इस ग्रन्थमें (यत्) जो (मया) मैंने (किमपि) कुछ भी (युक्तायुक्तमपि जल्पितं) युक्त अथवा अयुक्त शब्द कहा होवे, तो (तत्) से (ये