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परमात्मप्रकाश
[ ર૭e अर्थ
अराणु वि बंधु वि तिहुयणहं सासय-सुक्ख-सहाउ। तित्थु जि लयलु वि कालु जिय णिवसइ लद्ध-सहाउ ॥२०२।। अन्यदपि वन्धुरपि त्रिभुवनस्य शाश्वतसौख्यस्वभावः । तत्रैव सकलमपि कालं जीव निवसति लब्धस्वभावः ।।२०२।।
आगे फिर भी सिद्धोंकी महिमा कहते हैं-(अन्यदपि) फिर वे सिद्ध भगवान् (त्रिभुवनस्य) तीन लोकके प्राणियोंका (बंधुरपि) हित करने वाले हैं, (शाश्वतसुखस्वभावः) और जिनका स्वभाव अविनाशी सुख है, और (तत्रैव) उसी शुद्ध क्षेत्र में (लब्धस्वभावः) निजस्वभावको पाकर (जीव) हे जोव, (सकलमपि कालं) सदा काल (निवसति) निवास करते हैं, फिर चतुर्गति में नहीं आवेंगे ।
भावार्थ-सिद्धपरमेष्ठी तीनलोकके नाथ हैं, और जिनका भव्यजीव ध्यान करके भवसागरसे पार होते हैं, इसलिये भव्योंके बन्धु हैं, हितकारी हैं। जिनका रागादि रहित अव्याबाध अविनाशी सुख स्वभाव है, ऐसे अनन्तगुणरूप वे भगवान् उस मोक्ष पदमें सदा काल विराजते हैं । जिन्होंने शुद्ध आत्मस्वभाव पा लिया है, अनन्तकाल बीत गये, और अनन्तकाल आवेंगे, परन्तु वे प्रभु सदाकाल सिद्धक्षेत्र में बस रहे हैं । समस्त काल रहते हैं, इसके कहनेका प्रयोजन यह है, कि जो कोई ऐसा कहते हैं, कि मुक्त जीवोंका भी संसारमें पतन होता है, सो उनका कहना खंडित किया गया ।।२०२॥
अथजम्मण-मरण-विवज्जियउ चउ-गइ-दुक्ख विमुक्कु । केवल-दसण-णाणमउ णंदइ तित्थु जि मुक् ।।२०३॥ जन्ममरणविजितः चतुर्गतिदुःखविमुक्तः । केवलदर्शनज्ञानमयः नन्दति तत्रैव मुक्तः ॥२०३।।
आगे फिर भी सिद्धोंका ही वर्णन करते हैं-(जन्ममरणविजितः) वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठो जन्म और मरण कर रहित हैं, (चतुर्गतिदुःखविमुक्तः) चारों गतियों के दुःखोंसे रहित हैं, (केवलदर्शनज्ञानमयः) और केवलदर्शन केवलज्ञानमयी हैं. ऐसे