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परमात्मप्रकाश
नाम जिनराजके सिवाय दूसरेके नहीं हैं। ऐसा ही दूसरे ग्रन्थोंमें भी कहा है- एक हजार आठ नामों सहित वह मोक्षपुरका स्वामी उसकी आराधना सब करते हैं। उसके अनन्त नाम और अनन्तरूप हैं। वास्तवमें नामसे रहित रूपसे रहित ऐसे भगवान् देवको हे प्राणियों, तुम आराधो ॥२०॥
एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमात्मप्रकाशशब्दार्थकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण तृतीयमन्तरस्थलं गतम् । .
तदनन्तरं सिद्धस्वरूपकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति तद्यथा
माणे कम्म-क्खउ करिवि मुक्कउ होइ अणंतु । जिणवरदेवई सो जि जिय पणिउ सिद्ध महंतु ॥२०१॥ ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा मुक्तो भवति अनन्तः ।
जिनवरदेवेन स एव जीव प्रभणितः सिद्धो महान् ॥२०१॥
इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थल में परमात्मप्रकाश शब्दके अर्थकी मुख्यता से तीन दोहोंमें तीसरा अन्तरस्थल कहा।
आगे सिद्धस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं(ध्यानेन) शुक्लध्यानसे (कर्मक्षयं) कर्मोका क्षय (कृत्वा) करके (मुक्तः भवति) जो मुक्त होता है, (अनंतः) और अविनाशी है, (जीव) हे जीव, (स एव) उसे ही (जिनवरदेवेन) जिनवरदेवने (महान् सिद्धः प्रभरिणतः) सबसे महान सिद्ध भगवान् कहा है ।
भावार्थ-अरहन्तपरमेष्ठी सकल सिद्धान्तोंके प्रकाशक हैं, वे सिद्ध परमात्मा को सिद्धपरमेष्ठी कहते हैं, जिसे सब संत पुरुष आराधते हैं। केवलज्ञानादि महान अनन्तगुणोंके धारण करने से वह महान अर्थात् सबमें बड़े हैं । जो सिद्धभगवान ज्ञानावरणादि आठों ही कर्मोंसे रहित हैं, और सम्यक्त्वादि आठ गुण सहित हैं । क्षायकसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु, अव्यावाधइन आठ गुणोंसे मण्डित हैं, और जिसका अन्त नहीं ऐसा निरञ्जनदेव विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव जो आत्मद्रव्य उससे विपरीत जो आर्त रौद्र खोटें ध्यान उनसे उत्पन्न हुए जो शुभ अशुभ कर्म उनका स्वसंवेदनज्ञानरूप शुक्लध्यानसे क्षय करके अक्षय पद पा लिया है । कैसा है शुक्लध्यान ? रागादि समस्त विकल्पोंसे रहित परम निराकुलतारूप है। यही ध्यान मोक्षका मूल है, इसीसे अनन्त सिद्ध हुए और होंगे ।।२०१॥