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परमात्मप्रकाश
२८० ] (मुक्त ) कर्म रहित हुए (तत्रैव) अनन्तकालतक उसी सिद्ध क्षेत्रमें (नंदति) अपने स्वभाव में आनंदरूप विराजते हैं ।
भावार्थ- सहज शुद्ध परमानंद एक अखण्ड स्वभावरूप जो आत्मसुख उससे विपरीत जो चतुर्गतिके दुःख उनसे रहित हैं, जन्म-मरणरूपरोगोंसे रहित हैं, अविनश्वरपुरमें सदा काल रहते हैं । जिनका ज्ञान संसारी जीवोंकी तरह विचाररूप नहीं है, कि किसीको पहले जानें, किसीको पीछे जानें, उनका केवलज्ञान और केवलदर्शन एक ही समयमें सब द्रव्य, सब क्षेत्र, सब काल, और सब भावोंको जानता है । लोकालोकप्रकाशी आत्मा निज भाव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, और अनन्तवीर्यमयी है। ऐसे अनन्त गुणों के सागर भगवान् सिद्धपरमेष्ठी स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावरूप चतुष्टयमें निवास करते हुए सदा आनन्दरूपलोकके शिखरपर विराज रहे हैं, जिसका कभी अन्त नहीं, उसी सिद्धपदमें सदा काल विराजते हैं, केवलज्ञान दर्शन कर घट-घटमें व्यापक हैं। सकल कर्मोपाधि रहित महा निरुपाधि निराबाधपना आदि अनन्त गुणों सहित मोक्षमें आनन्द विलास करते हैं ।।२०३॥ .
एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये सिद्धपरमेष्ठिव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण चतुर्थमन्तरस्थलं गतम् । अथानन्तरं परमात्मप्रकाशभावनारतपुरुषाणां फलं दर्शयन् सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तथाहि
जे परमप्प-पयासु मुणि भावि भावहिं सत्थु । मोहु जिणेविणु सयलु जिय ते बुज्झहिं परमत्थु ॥२०४॥ ये परमात्मप्रकाशं मुनयः भावेन भावयन्ति शास्त्रम् । मोहं जित्वा सकलं जीव ते बुध्यन्ति परमार्थम् ।।२०४॥
इस तरह चौबीस दोहोंवाले महास्थल में सिद्धपरमेष्ठीके व्याख्यानकी मुख्यता कर तीन दोहोंमें चौथा अन्तरस्थल कहा।
आगे तीन दोहोंमें परमात्मप्रकाशकी भावनामें लीन पुरुषोंके फलको दिखाते हुए व्याख्यान करते हैं--(ये मुनयः) जो मुनि (भावेन) भावोंसे (परमात्मप्रकाश शास्त्रं) इस परमात्मप्रकाश नामा शास्त्रका (भावयंति) चिन्तवन करते हैं, सदेव इसोका अभ्यास करते हैं, (जीव) हे जीव, (ते) वे (सकलं मोह) समस्त मोहको (जित्वा) जीतकर (परमार्थ बुध्यंति) परमतत्त्वको जानते हैं ।