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परमात्मप्रकाश जाति है, वही जीवोंकी जाति है, ऐसे महामुनि द्रव्याथिकनयकर जीव और जिनवरमें । जातिभेद नहीं मानते, वे मोक्ष पाते हैं ।।१९७॥
___ एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये अहंदवस्थाकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण द्वितीयमन्तरस्थलं गतम् । अत ऊर्ध्वं परमात्मप्रकाशशब्दस्यार्थकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा
सयलहं कम्महं दोसहं वि जो जिणु देउ विभिण्णु । सो परमप्प-पयासु तुहं जोइय णियमें मण्णु ॥१८॥ सकलेभ्यः कर्मभ्यः दोषेभ्यः अपि यो जिनः देवः विभिन्नः। तं परमात्मप्रकाशं त्वं योगिन् नियमेन मन्यस्व ।।१८८॥
इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थल में अरहन्तदेवके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें दूसरा अन्तरस्थल कहा। - आगे परमात्मप्रकाश शब्दके अर्थके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहा कहते हैं(सकलेभ्यः कर्मभ्यः) ज्ञानावरणादि अष्टकर्मोसे (दोषेभ्यः अपि) और सब क्षुधादि अठारह दोषोंसे (विभिन्नः) रहित (यः जिनदेवः) जो जिनेश्वरदेव है, (तं) उसको (योगिन् त्वं) हे योगी, तू (परमात्मप्रकाशं) परमात्मप्रकाश (नियमेन) निश्चयसे (मन्यस्व) मान । अर्थात् जो निर्दोष जिनेन्द्रदेव हैं, वही परमात्मप्रकाश है ।
भावार्थ-रागादि रहित चिदानन्दस्वभाव परमात्मासे भिन्न जो सब कर्म वे ही संसारके मूल हैं । जगतके जीव तो कर्मोकर सहित हैं, और भगवान् जिनराज इनसे मुक्त हैं, और सब दोषोंसे रहित हैं। वे दोष सब संसारी-जीवोंके लग रहे हैं, ज्ञायकस्वभाव आत्माके अनन्तज्ञान सुखादि गुणोंके आच्छादक हैं । उन दोपोंसे रहित जो सर्वज्ञ वही परमात्मप्रकाश हैं, योगीश्वरोंके मनमें ऐसा ही निश्चय है । श्रीगुरू शिष्यसे कहते हैं कि हे योगिन्, तू निश्चयसे ऐसा ही मान, यही सत्पुरुषोंका अभिप्राय है ।।१९८॥
अथकेवल-दंसणु णाणु सुहु वीरिउ जो जि अणंतु । सो जिण-देउ वि परम मुणि परम-पयासु मुणंतु ॥१६॥