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परमात्मप्रकाश
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भावार्थ-समस्त लोकालोकको एक ही समय में केवलज्ञानसे जानता हुआ अरहन्त कहलाता है । जिसका ज्ञान जानने के क्रमसे रहित है । एक ही समय में समस्त लोकालोकको प्रत्यक्ष जानता है, आगे पीछे नहीं जानता। सब क्षेत्र, सब काल, सब भावको निरन्तर प्रत्यक्ष जानता है । जो केवलीभगवान् परम आनन्दमयी हैं । वीतराग परमसमरसीभावरूप जो परम आनन्द अतीन्द्रिय अविनाशी सुख वही जिसका लक्षण है । निश्चयसे ज्ञानानन्दस्वरूप है, इसमें सन्देह नहीं है ।।१६६।।
अथ
जो जिणु केवल-णाणमउ परमाणंद-सहाउ। सो परमप्पउ परम-परु सो जिय अप्प-सहाउ ।।१६७॥ यः जिनः केवलज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः ।
सः परमात्मा परमपरः स जीव आत्मस्वभावः ।।१६७।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि केवलज्ञान ही आत्माका निजस्वभाव है, और केवली को ही परमात्मा कहते हैं--(यः जिनः) जो अनन्त संसाररूपी वनके भ्रमणके कारण ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपी बैरो उनका जीतनेवाला वह (केवलज्ञानमयः) केवलज्ञानादि अनन्त गुणमयी है (परमानन्दस्वभावः) और इन्द्रिय विषयसे रहित आत्मीक रागादि विकल्पोंसे रहित परमानन्द ही जिसका स्वभाव है, ऐसा जिनेश्वर केवलज्ञानमयी अरहन्तदेव (सः) वहो (परमात्मा) उत्कृष्ट अनन्त ज्ञानादि गुणरूप लक्ष्मीवाला आत्मा परमात्मा है । उसीको वीतराग सर्वज्ञ कहते हैं, (जीव) हे जीव, वही (परमपरः) संसारियोंसे उत्कृष्ट है, ऐसा जो भगवान् वह तो व्यक्तिरूप है. और (सः आत्मस्वभावः) वह आत्माका ही स्वभाव है ।
भावार्थ- संसार भवस्थामें निश्चयनयकर शक्तिरूप विराजमान है, इसलिये संसारीको शक्तिरूप जिन कहते हैं, और केवलीको व्यक्तिरूप कहते हैं। द्रव्याथिकनयकर जैसे भगवान् हैं, वैसे ही सब जीव हैं, इस तरह निश्चयनयकर जीवको परब्रह्म कहो, परमशिव कहो, जितने भगवान्के नाम हैं, उतने ही निश्चयनयकर विचारो तो सब जीवोंके हैं, सभी जीव जिनसमान हैं, और जिनराज भी जोवोंके समान हैं, ऐसा जानना। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है । जो सम्यग्दृष्टि जीवोंको जिनवर जाने, और जिनघरको जीव जाने, जो जीवोंको जाति है, वही जिनवरकी जाति है, और जो जिनवरको