SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ ] परमात्मप्रकाश सकल विकल्पाना त्रुटयतां शिवपदमार्गे वसन् । कर्मचतुष्के विलयं गते आत्मा भवति अर्हन् ।। १६५।। इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमसमाधिके कथनरूप छह दोहोंका अन्तरस्थल हुआ। आगे तीन दोहोंमें अरहन्तपदका व्याख्यान करते हैं, अरहन्तपद कहो या भावमोक्ष कहो, अथवा जीवन्मोक्ष कहो, या केवलज्ञानकी उत्पत्ति कहो-ये चारों अर्थ एकको ही सूचित करते हैं, अर्थात् चारों शब्दोंका अर्थ एक ही है- (कर्मचतुष्के विलयं गते) ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी, और अन्तराय इन चार घातियाकर्मोके ताश होनेसे (आत्मा) यह जीव (अर्हन् भवति) अरहन्त होता है, अर्थात् जब घातियाकर्म विलय हो जाते हैं, तब अरहन्तपद पाता है, देवेन्द्रादिकर पूजाके योग्य हो वह अरहन्त है, क्योंकि पूजायोग्यको ही अरहन्त कहते हैं। पहले तो महामुनि हुआ (शिवपदमार्गेवसन) मोक्षपदके मार्गरूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें ठहरता हुआ (सकलविकल्पानां) समस्त रागादि विकल्पोंका (टयतां) नाश करता है, अर्थात् जब समस्त रागादि विकल्पोंका नाश हो जावे, तब निर्विकल्प ध्यानके प्रसादसे केवलज्ञान होता है। केवलज्ञानीका नाम अर्हन्त है, चाहे उसे जीवन्मुक्त कहो। जब अरहन्त हुआ, तब भावमोक्ष हआ, पीछे चार अघातियाकर्मोको नाशकर सिद्ध हो जाता है । सिद्धको विदेहमोक्ष कहते हैं । यही मोक्ष होनेका उपाय है. ।।१६।। अथ केवल-णाणिं अणवरउ लोयालोउ मुणंतु । णियमें परमाणंदमउ अप्पा हुइ अरहंतु ॥१६६॥ केवलज्ञानेनानवरतं लोकालोकं जानन् । नियमेन परमानन्दमयः आत्मा भवति अर्हन् ।।१९६॥ अब केवलज्ञानकी ही महिमा कहते हैं- (केवलज्ञानेन) केवलज्ञानसे (लोका. लोक) लोक अलोकको (अनवरतं) निरन्तर (जानन्) जानता हुआ (नियमन निश्चयसे (परमानंदमयः) परम आनन्दमयी (आत्मा) यह आत्मा ही रत्नत्रयक प्रसादसे (अर्हन) अरहन्त । भवति) होता है । -
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy