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परमात्मप्रकाश
[ २७३ भावार्थ-मनके दु:खको आधि कहते हैं, और तनुसम्बन्धी दुःखोंको व्याधि कहते हैं, नाना प्रकारके दु:खों को अज्ञानी जीव भोगता है। ये दुःख वीतराग परम आहादरूप जो पारमार्थिक-सुख उससे विमुख है। यह जीव अनन्तकाल तक निजस्वरूपके ज्ञान विना चारों गतियोंके नाना प्रकारके दुःख भोग रहा है। ऐसा व्याख्यान जानकर निज शुद्धात्मामें स्थिर होके राग द्वषादि समस्त विभावोंका त्यागकर निज ' स्वरूपकी ही भावना करनी चाहिये ।।१६३॥
अथ
जामु सुहासुह-भावडा णवि सयल वि तुति ।
परम-समाहि ण तासु केबुलि एमु भणंति ॥१६४॥ .. यावत् शुभाशुभभावाः नैव सकला अपि त्रुटयन्ति । -
परमसमाधिर्न तावत् मनसि केवलिन एवं भणन्ति ।।१६४।। - आगे यह कहते हैं, कि जबतक इस जीवके शुभाशुभ भाव सब दूर न हों, तबतक परमसमाधि नहीं हो सकती-(यावत्) जबतक (सकला अपि) समस्त (शुभाशुभभावाः) सकल विकल्प-जालसे रहित जो परमात्मा उससे विपरीत शुभाशुभ परिणाम (नैव त्रुट्यन्ति) दूर न हों-मिछे नहीं, (तावत्) तबतक (मनसि) रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्तमें (परमसमाधिः न) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप शुद्धोपयोग जिसका लक्षण है, ऐसी परमसमाधि इस जीवके नहीं हो सकती (एवं) ऐसा (केवलिनः) केवलीभगवान् (भणंति) कहते हैं ।
भावार्थ-शुभाशुभ विकल्प जब मिटें, तभी परमसमाधि होवे, ऐसी जिनेश्वरदेवकी आज्ञा है ।।१६४॥
इति चतुर्विंशतिस्त्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमसमाधिप्रतिपादकत्रपट केन प्रथममन्तरस्थलं गतम् ।
तदनन्तरमहत्पदमिति भावमोक्ष इति जीवन्मोक्ष इति केवलज्ञानोत्पत्चिरित्येकोऽर्थः तस्य चतुर्विधनामाभिधेयस्याहत्पदस्य प्रतिपादनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति ।
तद्यथा
सयल-वियप्पहं तुहाहं सिव-पय-मग्गि वसंतु । कम्म चउका विलउ गइ अप्पा हुइ अरहंतु ॥१६५।।