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आगे विषय कषायों का निषेध करते हैं - (ये) जो ( विषयकषायानपि ) समाधिको धारणकर विषय कषायोंको (निर्दल्य) मूलसे उखाड़कर (समाधि) तीन गुप्तिरूप परमसमाधिको ( न कुर्वति) नहीं धारण करते, (ते) वे ( योगिन् ) हे योगी, ( परमात्माराधकाः ) परमात्मा के आराधक (नैव भवंति ) नहीं हैं
भावार्थ - ये विषय कषाय शुद्धात्मतत्त्वके शत्रु हैं, जो इनका नाश न करे, वह स्वरूपका आराधक कैसा ? स्वरूपको वही आराधता है, जिसके विषय कषायका प्रसंग न हो, सब दोषोंसे रहित जो निज परमात्मा उसकी आराधनाके घातक विषय कषायके सिवाय दूसरा कोई भी नहीं है । विषय कषायकी निवृत्तिरूप शुद्धात्माकी अनुभूति वह वैराग्य से ही देखी जाती है । इसलिये ध्यानका मुख्य कारण वैराग्य है । जब वैराग्य हो तब तत्त्वज्ञान निर्मल हो, सो वैराग्य और तत्त्वज्ञान ये दोनों परस्पर में मित्र हैं । ये ही ध्यान के कारण हैं, और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहके त्यागरूप निर्ग्रन्थपना वह ध्यानका कारण है । निश्चित आत्मानुभूति ही स्वरूप है जिसका ऐसे जो मनका वश होना, वह वीतराग निर्विकल्पसमाधिका सहकारी है, और बाईस परीषहों का जीतना, वह भी ध्यानका कारण है । ये पांच ध्यानके कारण जानकर ध्यान करना चाहिए । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि संसार शरीर भोगोंसे विरक्तता, तत्त्वविज्ञान, सकल परिग्रहका त्याग, मका वश करना, और बाईस परीषहोंका जीतना - ये पांच आत्म-ध्यानके कारण हैं ||१२||
अथ
परमात्मप्रकाशः
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परम- समाहि धरेवि मुखि जे परबंभु ण जंति ।
ते भव- दुक्ख बहुविह कालु तु सर्हति ॥ १६३॥ परमसमाधि धृत्वापि मुनयः ये परब्रह्म न यान्ति ।
ते भवदुःखानि बहुविधानि कालं अनन्तं सहन्ते ।।१९३।।
आगे परमसमाधिकी महिमा कहते हैं - (ये मुनयः ) जो कोई मुनि ( परमसमाधि) परमसमाधिको (धृत्वापि ) धारण करके भी ( परब्रह्म) निज देहमें ठहरे हुए केवलज्ञानादि अनन्तगुणरूप निज आत्माको ( न यांति) नहीं जानते हैं, (ते) वे शुद्धात्मभावनासे रहित पुरुष ( बहुविधानि ) अनेक प्रकार के ( भवदुःखानि ) नारकादि भवदु:ख आधि, व्याधिरूप ( अनंतं कालं ) अनन्तकालतक ( सहते ) भोगते हैं ।