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परमात्मप्रकाश
[ २७१ और (सकलानि शास्त्राणि) सब शास्त्रोंको (जानन्) जानता हुआ भी (परमसमाधिविजितः) जो परमसमाधिसे रहित है, वह (शांतं शिवं) शांतरूप शुद्धात्माको (नव पश्यति) नहीं देख सकता।
भावार्थ-तप उसे कहते हैं, कि जिसमें किसी वस्तुकी इच्छा न हो । सो इच्छाका अभाव तो हुआ नहीं परन्तु कायक्लेश करता है, शीतकालमें नदीके तीर, ग्रीष्मकालमें पर्वतके शिखरपर, वर्षाकालमें वृक्षकी मूल में महान दुर्धर तप करता है । केवल तप ही नहीं करता शास्त्र भी पढ़ता है, सकल शास्त्रोंके प्रबन्धसे रहित जो निविकल्प परमात्मस्वरूप उससे रहित हुआ सीखता है, शास्त्रोंका रहस्य जानता है, परन्तु परमसमाधिसे रहित है, अर्थात् रागादि विकल्पसे रहित समाधि जिसके प्रगट न हुई, तो वह परमसमाधिके विना तप करता हुआ और श्रुत पढ़ता हुआ भी निर्मल ज्ञान दर्शनरूप तथा इस देहमें विराजमान ऐसे निज परमात्माको नहीं देख सकता । जो आत्मस्वरूप राग-दोष मोह रहित परमशांत है। परमसमाधिके विना तप और श्रुतसे भी शुद्धात्माको नहीं देख सकता।
जो निज शुद्धात्माको उपादेय जानकर ज्ञानका साधक तप करता है, और ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय जो जैनशास्त्र उनको पढ़ता है, तो परम्परा मोक्षका साधक है। और जो आत्माके श्रद्धान बिवा कायक्लेशरूप तप हो करे, तथा शब्दरूप ही श्रुत पढ़े, तो मोक्षका कारण नहीं है, पुण्यबन्धके कारण होते हैं । ऐसा ही परमानन्दस्तोत्रमें कहा है, कि जो निर्विकल्प समाधि रहित जीव हैं, वे आत्मस्वरूपको नहीं देख सकते । ब्रह्मका रूप आनन्द है, वह ब्रह्म निज देहमें मौजूद है; परन्तु ध्यानसे रहित जीव ब्रह्मको नहीं देख सकते, जैसे जन्मका अन्धा सूर्यको नही देख सकता है ॥१६१॥
अथविलय कसाय वि णिहलिवि जे ण समाहि करंति । ते परमप्पहं जोइया णवि आराहय होति ॥१६२।। विषयकपायानपि निर्दल्य ये न समाधि कुर्वन्ति । ..ते परमात्मनः योगिन् नैव आराधका भवन्ति ।।१६२।।