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परमात्मप्रकाश भावार्थ-जहां जलका प्रवाह आवे, वहां मल कैसे रह सकता है, कभी नहीं रहता ॥१८९॥
अथ
सयल-वियप्पहं जो विलउ परम-समाहि भणंति । तेण सुहासुह-भावडा मुणि सयलवि मेल्लिंति ॥१६॥ सकलविकल्पानां यः विलयः (तं) परमसमाधि भणन्ति । तेन शुभाशुभभावान मुनयः सकलानपि मुञ्चन्ति ॥१६०॥
आगे परमसमाधिका लक्षण कहते हैं-(यः) जो (सकलविकल्पानां) निर्विकल्पपरमात्मस्वरूपसे विपरीत रागादि समस्त विकल्पोंका (विलयः) नाश होना, उसको (परमसमाधि भणंति) परमसमाधि कहते हैं, (तेन) इस परमसमाधिसे (मुनयः) मुनिराज ( सकलानपि ) सभी (शुभाशुभविकल्पान् ) शुभ अशुभ भावोंको (मुंचंति ) छोड़ देते हैं।
भावार्थ--परम आराध्य जो आत्मस्वरूप उसके ध्यान में लीन जो तपोधन वे शुभ अशुभ मन वचन कायके व्यापारसे रहित जो शुद्धात्मद्रव्य उससे विपरीत जो अच्छे बुरे भाव उन सबको छोड़ देते हैं, समस्त परद्रव्यको आशासे रहित जो निज शुद्धात्म स्वभाव उससे विपरीत जो इस लोक परलोककी आशा, वह जबतक मनमें स्थित में, तबतक यह जीव दुःखी है। ऐसा जानकर सब परद्रव्यकी आशासे रहित जो शुद्धात्मद्रव्य उसकी भावना करनी चाहिये। ऐसी ही कथन अन्य जगह भी हैआशारूप पिशाचसे घिरा हुआ यह जीव महानु भयंकर दुःख पाता है, जिन मुनियोंने आशा छोड़ी, उन्होंने सब दुःख दूर किये, क्योंकि दुःखका मूल आशा ही है ।।१६०॥
अथ
घोरु करंतु वि तव-चरणु सयल वि सत्थ मुणंतु । परम-समाहि-विवज्जियउ णवि देक्खई सिउ संतु ॥१६१॥ घोरं कुर्वन् अपि तपश्चरणं सकलान्यपि शास्त्राणि जानन् ।
परमसमाधिविजितः नैव पश्यति शिवं शान्तम् ।।१६१।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि जो परमसमाधिके बिना शुद्ध आत्माको नहीं देख सकता-(घोरं तपश्चरणं कुर्वन् अपि) जो मुनि महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ भी