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परमात्मप्रकाश
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जो मोक्ष है, वह चिन्ताके त्यागसे होता है । यही कहते हैं-(येन) जिन मिथ्यात्वरागादि चिन्ता-जालोंसे उपार्जन किये कर्मोसे (जीवः) यह जीव (निबद्धः) बन्धा हुआ है,
(तदेव) वे कर्म ही (मोक्ष) शुभाशुभ विकल्पके समूहसे रहित जो शुद्धात्मतत्त्वका स्वरूप .... उसमें लीन हुए परमयोगियोंकी मोक्ष (करिष्यति) करेंगे ।
भावार्थ-वह चिन्ताका त्याग ही तुझको निस्सन्देह मोक्ष करेगा। अनन्त ज्ञानादि गुणोंकी प्रगटता वह मोक्ष है । यद्यपि विकल्प सहित जो प्रथम अवस्था उसमें विषय कषायादि खोटे ध्यानके निवारण करनेके लिये और मोक्ष-मार्गमें परिणाम दृढ़ करने के लिये ज्ञानीजन ऐसी भावना करते हैं, कि चतुर्गतिके दुःखोंका क्षय हो, अष्ट कर्मोका क्षय हो, ज्ञानका लाभ हो, पंचमगतिमें गमन हो, समाधि मरण हो, और जिनराजके गुणोंकी सम्पत्ति मुझको हो। यह भावना चौथे पांचवें छ8 गुणस्थानमें करने योग्य है, तो भी ऊपरके गुणस्थानोमें वीतराग निर्विकल्पसमाधिके समय नहीं होती ॥१८॥
अथ चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमसमाधिव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रपटकमन्तरस्थलं कथ्यते । तद्यथा
परम-समाहि-महा-सरहिं जे बुड्डहिं पइसेवि । अप्पा थकइ विमलु तहं भव-मल जंति वहेवि ।।१८६।। परमसमाधिमहासरसि ये मजन्ति प्रविश्य ।
आत्मा तिष्ठति विमलः तेषां भवमलानि यान्ति ऊवा ॥१८६।।
आगे चौबीस दोहोंके स्थल में परमसमाधिके व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहासूत्र कहते हैं-(ये) जो कोई महान् पुरुष (परमसमाधिमहासरसि) परमसमाधिरूप सरोवर में (प्रविश्य) घुसकर (मज्जन्ति) मग्न होते हैं, उनके सब प्रदेश समाधिरस में भीग जाते हैं, (आत्मा तिष्ठति) उन्हींके चिदानन्द अखण्ड स्वभाव आत्माका ध्यान स्थिर होता है। जो कि आत्मा (विमलः) द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मसे रहित महानिर्मल है, (तेषां) जो योगी परमसमाधिमें रत हैं, उन्हीं पुरुषोंके (भवमलानि) शास.
द्रव्यसे विपरीत अशुद्ध भावके कारण जो कर्म हैं, वे सब (वहित्वा यांति) शुद्धात्म परि. नामरूप जो जलका प्रवाह उसमें वह जाते हैं। . ..
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