________________
२६८ ]
परमात्मप्रकाश लिये हैं; परन्तु भेदाभेदत्नत्रयकी भावनाका विनाश नहीं किया । ऐसा जानकर सर्वथा क्षमा ही करना चाहिये ॥१८६।। .
अथ सर्वचिन्तां निषेधयति युग्मेन
जोइय चिंति म किं पि तुहँ जइ बीहउ दुक्खस्स । तिल-तुस-मित्त वि सल्लडा वेयण करइ अवस्स ॥१८७॥ योगिन् चिन्तय मा किमपि त्वं यदि भीतः दुःखस्य । ..
तिलतुषमात्रमपि शल्यं वेदनां करोत्यवश्यम् ।।१८७॥ ..
, आगे सब चिन्ताओंका निषेध करते हैं--(योगिन्) हे योगी, (त्वं) तू (यदि) जो (दुःखस्य) वीतराग परम आनन्दके शत्रु जो नरकादि चारों गतियोंके दुःख उनसे (भीतः) डर गया है, तो तू निश्चिन्त होकर परलोकका साधन कर, इस लोक की ( किमपि मा चितय ) कुछ भी चिन्ता मत कर । क्योकि ( तिलतुषमात्रमपि शल्यं ) तिलके भूसे मात्र भी शल्य (वेदनां) मनको वेदना (अवश्यं करोति) निश्चयसे करती है।
भावार्थ-चिन्ता रहित आत्म-ज्ञानसे उलटे जो विषय कषाय आदि विकल्पजाल उनकी चिन्ता कुछ भी नहीं करना । यह चिन्ता दुःखका ही कारण है, जैसे बाण आदिकी तृणप्रमाण भी सलाई महादःखका कारण है, जब वह शल्य निकले, तभी सुख होता है ।। १८७॥
किंच
मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु ण चिंतिउ होइ । जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ ॥१८८॥ मोक्षं मा चिन्तय योगिन् मोक्षो न चिन्तितो भवति ।.. येन निबद्धो जीवः मोक्षं करिष्यति तदेव ।।१८८॥ .
आगे मोक्षकी भी चिन्ता नहीं करना, ऐसा कहते हैं--(योगिन्) हे योगी, अन्य चिन्ताकी तो बात क्या रही, (मोक्षं मा चितय) मोक्षकी भी चिन्ता मत कर, (मोक्षः) क्योंकि मोक्ष (चितितो न भवति) चिन्ता करने से नहीं होता, वांछाके त्यागस ही होता है, रागादि चिन्ताजालसे रहित केवलज्ञानादि अनन्तगुणोंको प्रगटता सहित
-
-