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परमात्मप्रकाश
अवगुणग्रहणेन मदीयेन यदि जीवानां संतोषः ।
ततः तेषां सुखस्य हेतुरहं इति मत्वा त्यज रोषम् ॥ १८६॥
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आगे जो कोई अपने दोष ग्रहण करे तो उसपर क्रोध नहीं करना, क्षमा करना, यह अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं - ( मदीयेन अवगुणग्रहणेन ) अज्ञानी जीवोंको परके दोष ग्रहण करनेसे हर्ष होता है, मेरे दोष ग्रहण करके ( यदि जीवानां संतोषः ) जिन जीवोंको हपं होता है, (ततः) तो मुझे यही लाभ है, कि (अहं) में ( तेषां सुखस्य हेतुः ) उनको सुखका कारण हुआ, ( इति मत्वा ) ऐसा मनमें विचारकर ( रोषं त्यज) गुस्सा छोड़ो ।
भावार्थ - ज्ञानी गुस्सा नहीं करते, ऐसा विचारते हैं, कि जो कोई परका उपकार करनेवाले परजीवोंको द्रव्यादि देकर सुखी करते हैं, मैंने कुछ द्रव्य नहीं दिया, उपकार नहीं किया, मेरे अवगुण ही से सुखी हो गये, तो इसके समान दूसरी बात क्या है ? ऐसा जानकर हे भव्य, तू रोष छोड़ । अथवा ऐसा विचारे, कि मेरे अनंत ज्ञानादिगुण तो उसने नहीं लिये, दोष लिये वो निस्संक लो । जैसे घरमें कोई चोर आया, और उसने रत्न सुवर्णादि नहीं लिये माटी पत्थर लिये तो लो, तुच्छ वस्तुके लेनेवालेपर क्या क्रोध करना, ऐसा जान रोष छोड़ना । अथवा ऐसा विचारे, कि जो यह दोष कहता है, वे सच कहता है, तो सत्यवादीसे क्या द्वेष करना । अथवा ये दोष मुझमें नहीं हुआ वह वृथा कहता है, तो उसके वृथा कहनेसे क्या में दोषी हो गया, बिल्कुल नहीं हुआ । ऐसा जानकर कोध छोड़ क्षमाभाव धारण करना चाहिये ।
अथवा यह विचारो कि वह मेरे मुंहके आगे नहीं कहता, लेकिन पीठ पीछे कहता है, सो पीठ पीछे तो राजाओं को भी बुरा कहते हैं, ऐसा जानकर उससे क्षमा करना कि प्रत्यक्ष तो मेरा मानभंग नहीं करता है, परोक्षकी बात क्या है । अथवा कदाचित् कोई प्रत्यक्ष मुंह आगे दोष कहे, तो तू यह विचार कि वचनमात्रसे मेरे दोष ग्रहण करता है, शरीरको तो बाधा नहीं करता, यह गुण है, ऐसा जान क्षमा हो फर । अथवा जो कोई शरीर को भी बाधा करे, तो तू ऐसा विचार, कि मेरे प्राण तो नहीं हरता, यह गुण है । जो कभी कोई पापी प्राण ही हर ले, तो यह विचार कि ये प्राण तो विनाशक हैं, विनाशीक वस्तुके चले जानेकी क्या वात है । मेरा ज्ञानभाव अविनश्वर है, उसको तो कोई हर नहीं सकता, इसने तो मेरे बाह्य प्राण हर