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गुणों का आधार है, सर्वोत्कृष्ट है, (येन) जिसके ध्यान करने से ( मन ) मनका विकार ( झटिति ) शीघ्र ही ( विलीयते) विलीन हो जाता है || १८४||
मध जीवः कर्मवशेन जातिभेदभिन्नो भवतीति निश्चिनोति - लोउ विलक्व कम्म वसु इत्थु भवंतरि एड् । चुज्जु कि जड़ इपिठिउ इत्थुजि भवि ण पडे ॥ १८५ ॥ लोक: विलक्षणः कर्मवश: अत्र भवान्तरे आयाति । आश्चर्यं किं यदि अयं आत्मनि स्थितः अत्रैव भवे न पतति ||१८५||
परमात्मप्रकाश
आगे जीवके कर्मके वशसे भिन्न-भिन्न स्वरूप जाति-भेदसे होते हैं, ऐसा नि करते हैं- ( विलक्षणः) सोलहवानीके सुवर्णकी तरह केवलज्ञानादि गुणकर समान जो परमात्मतत्त्व उससे भिन्न जो (लोक: ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि जाति-भेदप जीव- राशि वह (कर्मवश: ) कर्मसे उत्पन्न है, अर्थात् जाति-भेद कर्मके निमित्त से हुआ है, और वे कर्म आत्म-ज्ञानकी भावनासे रहित अज्ञानी जीवने उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंके अधीन जाति-भेद है, जबतक कर्मोंका उपार्जन है, तबतक ( श्रत्र भवांतरे श्रायाति) इस संसार में अनेक जाति धारण करता है, (अयं यदि) जो यह जीव ( श्रात्मनि स्थितः ) आत्मस्वरूप में लगे, तो ( अत्रैव भवे ) इसी भवमें ( न पतति ) नहीं
पंड़े भ्रमण नहीं करे, (कि आश्चर्य) इसमें क्या आश्चर्य है, कुछ भी नहीं ।
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भावार्थ- - जबतक आत्मामें चित्त नहीं लगता, तबतक संसार में भ्रमण करना है, अनेक भव धारण करता है, लेकिन जब यह आत्मदर्शी हुआ तब कमको उपार्जन करता, और भवमें भी नहीं भटकता । इसमें आश्चयं नहीं है । गंगार शरीर भोगोंसे उदास और जिसकी भव-भ्रमणका भय उत्पन्न हो गया है, ऐसा जीव उसको मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद, योग, इन पांचों वासयोंको छोर परमात्मतत्त्व में सदैव भावना करनी चाहिये। जो इसके आत्म-भावना हो भ्रमण नही हो सकता ।।१८।।
अथ परेण दोपग्रह कृते कोपो न कर्तव्य इत्या मना प्रतिपादयति
अब गुगा महगाई महुनगाई जड़ जीवहं संतोषु । तो नहंस हेड छउं इउ मनिवि च
॥१८६॥