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________________ परमात्मप्रकाश [ २५३ अथ - जो प्रायासइ मणु धरइ लोयालोय - पमाणु । तु मोडत्ति त पावइ परहं पवाणु ॥ १६४॥ यः आकाशे मनो धरति लोकालोक प्रमाणम् । त्रुट्यति मोहो झटिति तस्य प्राप्नोति परस्य प्रमाणम् ।। १६४ ।। आगे फिर भी निर्विकल्पसमाधिका कथन करते हैं - (यः) जो ध्यानी पुरुष ( श्राकाशे) निर्विकल्पसमाधि में (मनः ) मन (धरती) स्थिर करता है, ( तस्य ) उसीका (मोहः) मोह (झटिति ) शीघ्र (त्रुट्यति) टूट जाता है, और ज्ञान करके ( परस्य प्रमाणं ) लोकालोकप्रमाण आत्माको ( प्राप्नोति) प्राप्त हो जाता है । भावार्थ - आकाश अर्थात् वीतराग चिदानन्द स्वभाव अनन्त गुणरूप और मिथ्यात्व रागादि परभाव रहित स्वरूप निर्विकल्पसमाधि यहां समझना । जैसे आकाशद्रव्य सब द्रव्योंसे भरा हुआ है, परन्तु सबसे शून्य अपने स्वरूप है, उसी प्रकार चिद्रूप आत्मा रागादि सब उपाधियोंसे रहित है, शून्यरूप है, इसलिये आकाश शब्द का अर्थ यहां शुद्धात्मस्वरूप लेना । व्यवहारनयकर ज्ञान लोकालोकका प्रकाशक है, और निश्चयनयकर अपने स्वरूपका प्रकाशक है । आत्माका केवलज्ञान लोकालोकको जानता है, इस कारण ज्ञानकी अपेक्षा लोकालोकप्रमाण कहा जाता है, प्रदेशोंकी अपेक्षा लोकालोकप्रमाण नहीं है । ज्ञानगुण लोकालोक में व्याप्त है; परन्तु परद्रव्यों से भिन्न है । परवस्तु से जो तन्मयी हो जावे, तो वस्तुका अभाव हो जावे । इसलिये यह निश्चय हुआ, कि ज्ञान गुणकर लोकालोकप्रमाण जो आत्मा उसे आकाश भी कहते हैं, उसमें जो मन लगावे, तब जगत् से मोह दूर हो और परमात्माको पावे । व्यवहारनयकर आत्मा ज्ञानकर सबको जानता है, इसलिये सब जगत् में है । जैसे व्यवहारनयकर नेत्र रूपी पदार्थको जानता है; परन्तु उन पदार्थोंसे भिन्न है । जो निश्चयकर सर्वगत होवे, तो परपदार्थोंसे तन्मयी हो जावे, जो उसे तन्मयी होवे तो नेत्रोंको अग्निका दाह होना चाहिये, इस कारण तन्मयी नहीं है । उसी प्रकार आत्मा जो पदार्थोंको तन्मयी होके जाने, तो परके सुख दुःखसे तन्मयी होनेसे इसको भो दूसरेका सुख दुःख मालूम होना चाहिये, पर ऐसा होता नहीं है । इसलिये निश्चय आत्मा असर्वगत है, और व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा निश्चयसे लोक
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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