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परमात्मप्रकाश
प्रमाण असंख्यातप्रदेशी है, और व्यवहारनयकर पात्र में रखे हुए दीपककी तरह देहप्रमाण है, जैसा शरीर-धारण करे वैसा प्रदेशोंका संकोच विस्तार हो जाता है ।।१६४।।
अथ
देहि वसंतु वि णवि मुणिउ अप्पा देउ अणंतु । अंबरि समरसि मणु धरिवि सामिय ण? णिभंतु ॥१६५॥ देहे वसन्नपि नैव मतः आत्मा देवः अनन्तः ।
अम्बरे समरसे मनः धृत्वा स्वामिन् नष्ट: निन्तिः ।।१६५।।
आगे फिर भी शिष्य प्रश्न करता है-(स्वामिन्) हे स्वामी, (देह वसन्नपि) व्यवहारनयकर देहमें रहता हुआ भी (आत्मा देवः) आराधने योग्य आत्मा (अनंतः) अनंत गुणोंका आधार (नैव मतः) मैंने अज्ञानतासे नहीं जाना । क्या करके (समरसे) समान भावरूप (अंबरे) निर्विकल्पसमाधिमें (मनः धृत्वा) मन लगाकर । इसलिये अबतक (नष्टो नितिः) निस्सन्देह नष्ट हुआ।
भावार्थ-प्रभाकरभट्ट पछताता हआ श्रीयोगीन्द्रदेवसे विनती करता है, कि हे स्वामिन् मैंने अबतक रागादि विभाव रहित निर्विकल्पसमाधिमें मन लगाकर आत्म. देव नहीं जाना, इसलिये इतने कालतक संसारमें भटका निजस्वरूपको प्राप्तिके बिना मैं नष्ट हुआ। अब ऐसा उपदेश करें कि जिससे भ्रम मिट जावे ।।१६५।।
एवं परमोपदेशकथनमुख्यत्वेन सूत्रदशकं गतम् । अथ परमोपशमभावसहितेन सय संगपरित्यागेन संसारविच्छेदं भवतीति युग्मेन निश्चिनोति
सयल वि संग ण मिल्लिया णवि किड उवसम-भाउ । सिव-पय-मग्गु वि मुणिउ णवि जहिं जोइहिं अणुराउ ॥१६॥ घोरु ण चिराणउ तव चरणु जं गिय-बोहहं सारू । पुराणु वि पाउ वि दड्डु गावि किमु छिन्नइ संसार ॥१६७। सकला अपि मंगा न मुक्ता: नैव कृत उपशमभावः । शिव दमार्गोऽपि मतो नैव यय योगिनां अनुरागः ।।१६।। पोरं न चीर्ण तपश्चरणं यत् निजबोधस्य मारम् । पुण्यमपि पापमपि दन्यं नैव कि छिनते संसार: ॥१६७।।