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परमात्मप्रकाश श्वासोच्छ्वास (त्रुटयति) रुक जाता है, (अपि) और (केवलज्ञानं) केवलमान (परिणमति) उत्पन्न होता है ।
भावार्थ-दर्शनमोह और चारित्रमोह आदि कल्पना-जाल सब विलय हो जाते हैं, इस लोक परलोक आदिको वांछा आदि विकल्प जालरूप मन स्थिर हो जाता है, और श्वासोच्छ्वासरूप वायु रुक जाती है, श्वासोच्छ्वास अवांछीकपनेसे नासिका के द्वारको छोड़कर तालुछिद्रमें होकर निकलते हैं, तथा कुछ देर के बाद नासिकाले निकलते हैं । इस प्रकार श्वासोच्छ्वासरूप पवन वश हो जाता है। चाहे जिस द्वार निकालो। केवलज्ञान भी शीघ्र ही उन ध्यानी मुनियोंके उत्पन्न होता है, कि जिन मुनियोंका राग द्वेष मोहरूप विकल्प-जालसे रहित शुद्धात्माका सम्यक श्रद्धान शान आचरणरूप निर्विकल्प त्रिगुप्तिमयी परमसमाधिमें निवास है । यहां अम्बर नाम आकाशका अर्थ नहीं समझना, किन्तु समस्त विषय-कषायरूप विकल्प-जालोंसे शाम परमसमाधि लेना । और यहां वायु शब्दसे कुभक पूरक रेचकादिरूप वांछापूर्वक वायुनिरोध न लेना, किन्तु स्वयमेव अवांछीक वृत्तिपर निर्विकल्पसमाधिके बलसे ब्रहाद्वार नामा सूक्ष्म छिद्र जिसको तालुवेका रंध्र कहते हैं, उसके द्वारा अवांछीक वृत्तिमे पवन निकलता है, वह लेना । ध्यानी मुनियोंके पवन रोकनेका यत्न नहीं होता है, बिना ही यत्नके सहज ही पवन रुक जाता है, और मन भी अचल हो जाता है, ऐसा समाधि का प्रभाव है।
ऐसी दूसरी जगह भी कहा है, कि जो मूढ़ है, वे तो अम्बरका अर्थ आकाश को जानते हैं, और जो ज्ञानीजन हैं, वे अम्बरका अर्थ परमसमाधिस्य निविता जानते हैं। सो निर्विकल्प ध्यान में मन मर जाता है, पवनका सहज हो विरोध होगा है, और सब अग तोन भुवनके समान हो जाता है। जो परमसमाधिको जाने, मा मोह टूट जावे। मनके विकल्पोंका मिटना वही मनका मरना है, और वही श्यामा रुकना है, जो कि सब द्वारोंसे रुककर दश द्वार में से होकर निकले । तीन लोग। प्रकाशकः आत्माको निर्विकल्प समाधि में स्थापित करता है। अन्तराल शब्दतता अर्थ गगादि भावोंसे शून्यदशा लेना आकाशका अर्थ न लेना । आकाणके जाननेने मा जान नहीं मिटता, आत्मस्वरूपके जानने से मोद-जाल मिटता है। जो पातञ्जलि सार परम मनमें गन्दनपसमाधि कही है, वह अभिप्राय नहीं लेना, क्योंकि जब विभाया। शुन्यता हो जायेगी तय बस्तुपा ही अभाव हो जायगा ।।१६३॥