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परमात्मप्रकाश
[ २५१ वह संयमीके वायुका निरोध वांछापूर्वक नहीं होता है, स्वाभाविक हो होता है । जिनशासनमें ऐसा कहा है, कि कुभक (पवनको खेंचना) पूरक (पवनको थांभना) रेचक (पवनको निकालना) ये तोन भेद प्राणायामके हैं, इसीको वायुधारणा कहते हैं। यह क्षणमात्र होती है, परन्तु अभ्यासके वशसे घड़ी पहर दिवस आदितक भी होती है। उस वायुधारणाका फल ऐसा कहा है, कि देह आरोग्य होती है, देहके सब रोग मिट जाते हैं, शरीर हलका हो जाता है, परन्तु मुक्ति इस वायुवारणासे नहीं होती, क्योंकि वायुधारणा शरीरका धर्म है, आत्माका स्वभाव नहीं है । शुद्धोपयोगियोंके सहज ही बिना यत्न के मन भी रुक जाता है, और श्वास भी स्थिर हो जाते हैं । शुभोपयोगियोंके मनके रोकनेके लिये प्राणायामका अभ्यास है, मनके अचल होने पर कुछ प्रयोजन नहीं है। जो आत्मस्वरूप है, वह केवल चेतनामयो ज्ञान दर्शनस्वरूप है, सो शुद्धोपयोगी तो स्वरूपमें अतिलीन हैं, और शुभोपयोगी कुछ एक मनकी चपलतासे आनन्दधनमें अडोल अवस्थाको नहीं पाते, तबतक मनके वश करनेके लिए श्रीपंचपरमेष्ठीका ध्यान स्मरण करते हैं, ओंकारादि मन्त्रोंका ध्यान करते हैं और प्राणायामका अभ्यास कर मनको रोकके चिद्र पमें लगाते हैं, जब वह लग गया, तब मन और पवन सब स्थिर हो जाते हैं । शुभोपयोगियोंकी दृष्टि एक शुद्धोपयोगपर है, पातंजलिमतकी तरह थोथी वायुधारणा नहीं है। जो वायुधारणासे ही शक्ति होवे, तो वायुधारणाके करनेवालोंको इस दुःषमकाल में मोक्ष क्यों न होवे ? कभी नहीं होता। मोक्ष तो केवल स्वभावमयी है ।।१६२।।
मथ
मोहु विलिज्जइ मणु मरइ तुट्टइ सासु-णिसासु । केवल-णाणु वि परिणमइ अंवरि जाहं णिवासु ॥१६३॥ मोहो विलीयते मनो म्रियते त्रुटयति श्वासोच्छ्वास :। केवलज्ञानमपि परिणमति अम्बरे येषां निवासः ।।१६।।
आगे फिर भी परमसमाधिका कथन करते हैं-(येपां) जिन मुनिश्वरोंका (अंबरे) परमसमाधिमें (निवास:) निवास है, उनका (मोहः) मोह (विलीयते) नाशको प्राप्त हो जाता है, (मनः) मन (म्रियते) मर जाता है, (श्वासोच्छ्वासः)