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परमात्मप्रकाश
शून्यं पदं ध्यायतां पुनः पुनः ( ? ) योगिनाम् । समरसीभावं परेण सह पुण्यमपि पापं न येषाम् ।।१५६ ॥
आगे शुभाशुभ विकल्पसे रहित जो निर्विकल्प (शून्य) ध्यान उसको जो ध्याते हैं, उन योगियोंको मैं बलिहारी करता हूँ, ऐपा कहते हैं - (शून्यं पदं ध्यायतां ) विकल्प रहित ब्रह्मपदको ध्यावनेवाले ( योगिनां) योगियों को मैं (बल बलि) बार-बार मस्तक नमाकर पूजा करता हैं, (येषां ) जिन योगियों के ( परेण सह ) अन्य पदार्थों के साथ ( समरसीभावं ) समरसीभाव है, और (पुण्यं पापं अपि न ) जिनके पुण्य और पाप दोनों ही उपादेय नहीं हैं ।
भावार्थ- शुभ-अशुभ मन, वचन, कायके व्यापार रहित जो वीतराग परमआनन्दमयी सुखामृत - रसका आस्वाद वही उसका स्वरूप है, ऐसी आत्मज्ञानमयी परगकलाकर भरपूर जो ब्रह्मपद - शून्य पद- निज शुद्धात्मस्वरूप उसको ध्यानी राग रहित तीन गुप्तिरूप समाधिके बलसे ध्यावते हैं, उन ध्यानी योगियोंकी मैं वार-बार बलिहारी करता है, ऐसे योगीन्द्रदेव अपना अन्तरङ्गका धर्मानुराग प्रकट करते हैं, और परम योगीश्वरोंके परम स्वसंवेदनज्ञान सहित महा समरसीभाव है । समरसीभावका लक्षण ऐसा है, कि जिनके इन्द्र और कीट दोनों समान, चिन्तामणिरत्न और दोनों समान हों । अथवा ज्ञानादि गुण और गुणी निज शुद्धात्म द्रव्य इन दोनोंका एकीभावरूप परिणमन वह समरसीभाव है, उस कर सहित हैं, जिनके पुण्य पाप दोनों ही नहीं हैं । ये दोनों शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वभाव परमात्मासे भिन्न हैं, सो जिन मुनियोने दोनोंको हेय समझ लिया है, परमध्यान में मारूढ़ हैं, उनकी में बार-बार बलिहारी जाता है ।। १५ ।।
अथ
उच्चस बसिया जो करइ बसिया करड़ जु सुगगु ।
वलि किज्जरं तसु जोइयहिं जासु ण पाउ । पुराण ।। १६० ।।
उद्वसान् वसितान् यः करोति वसितान् करोति यः शून्यान् । बलि कुर्वेऽहं नस्य योगिनः यस्य न पापं न पुण्यम् ।। १६० ।।
आगे फिर भी योगीश्वरोको प्रशंसा करते हैं (यः) जो (उद्धान् ) है, अर्थात् पहने कभी नहीं हुए ऐसे शुद्धीपयोगरूप परिणामोंको ( वसितान् ) स्व