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________________ परमात्मप्रकाश [ २४६ ज्ञानके बलसे बसाता है, अर्थात् अपने हृदय में स्थापन करता है, और (यः) जो ( वसितान् ) पहले के बसे हुए मिथ्यात्वादि परिणाम हैं, उनको ( शून्यान् ) ऊजड़ करता है, उनको निकाल देता है, ( तस्य योगिनः ) उस योगीकी (अहं) मैं (बलि) पूजा ( कुर्वे ) करता हूँ, (यस्य) जिसके ( न पापं न पुण्यं) न तो पाप है और न पुण्य है । भावार्थ - जो प्रगटरूप नहीं बसते हैं, अनादिकालके वीतराग चिदानन्दस्वरूप शुद्धात्मानुभूतिरूप शुद्धोपयोग परिणाम उनको अब निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान के चल से बसाता है, निज स्वादनरूप स्वाभाविक ज्ञानकर शुद्ध परिणामोंकी बस्ती निज घटरूपी नगर में भरपूर करता है । और अनादिकालके जो शुद्ध चैतन्यरूप निश्चय प्राणोंके घातक ऐसे मिथ्यात्व रागादिरूप विकल्पजाल हैं, उनको निजस्वरूप नगरसे निकाल देता है, उनको ऊजड़ कर देता है, ऐसे परमयोगीकी मैं बलिहारी हूँ, अर्थात् उसके मस्तकपर मैं अपनेको वारता हूँ । इस प्रकार श्रोयोगीन्द्रदेव परमयोगियोंकी प्रशंसा करते हैं । जिन योगियोंके वीतराग शुद्धात्मा तत्त्वसे विपरीत पुण्य-पाप दोनों ही नहीं हैं ॥ १६० ॥ व्यथैक सूत्रेण प्रश्नं कृत्वा सूत्रचतुष्टयेनोत्तरं दत्वा च तमेव पूर्वसूत्रपञ्चकेनोक्तं निर्विकल्पसमाधिरूपं परमोपदेशं पुनरपि विवृणोति पञ्चकलेन तुइ मोहु तडित्ति जहिं म त्वहं जाइ । सो सामइ उवसु कहि अों देवि काइ ॥ १६१॥ त्रुट्यति मोहः झटिति यत्र मनः अस्तमनं याति । तं स्वामिन् उपदेशं कथय अन्येन देवेन किम् ।। १६१ ।। आगे एक दोहे में शिष्यका प्रश्न और चार दोहों में प्रश्नका उत्तर देकर निर्विकल्पसमाधिरूप परम उपदेशको फिर भी विस्तारसे कहते हैं - ( स्वामिन् ) हे स्वामी, मुझे ( तं उपदेशं ) उस उपदेशको ( कथय ) कहो ( यत्र ) जिससे ( मोहः ) मोह ( झटिति ) शोघ्र ( त्रुट्यति) छूट जावे, (सनः ) और चचल मन ( अस्तमनं ) स्थिरता को (याति) प्राप्त हो जावे, (अन्येन देवेन कि ) दूसरे देवतों से क्या प्रयोजन ? भावार्थ - प्रभाकरभट्ट श्रीयोगीन्द्रदेव से प्रश्न करते हैं, कि हे स्वामी, वह उपदेश कहो कि जिससे निर्मोह शुद्धात्मद्रव्यसे पराङमुख मोह शीघ्र जुदा हो जावे, अर्थात् मोहके उदयसे उत्पन्न समस्त विकल्प-जालोंसे रहित जो परमात्मा पदार्थ उसमें
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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