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भावार्थ - यह प्रत्यक्षरूप संसारी जीव विकल्प सहित है दशा जिसकी, उसको समस्त विकल्प - जाल रहित निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्मासे नहीं मिलाया । मिथ्यात्व विपय कषायादि विकल्पोंके समूहकर परिणत हुआ जो मन उसको वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शस्त्र से शीघ्र ही मारकर आत्माको परमात्मासे नहीं मिलाया, वह योगो योगसे क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता । जिसमें मन मारने की शक्ति नहीं है, वह योगी कैसा ? योगी तो उसे कहते हैं, कि जो बड़ाई पूजा ( अपनी महिमा) और लाभ आदि सब मनोरथरूप विकल्प - जालोंसे रहित निर्मल ज्ञान दर्शनमयी परमात्माको देखे जाने अनुभव करे । सो ऐसा मनके मारे विना नहीं हो सकता, यह निश्चय जानना ।। १५७।।
अथ
परमात्मप्रकाश
अप्पा मेल्लिवाणम अणु जे भायहिं काणु वढा वियंभियहं कउ तहं केवल णाणु ॥ १५८ ॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यदु ते ध्यायन्ति ध्यानम् । वत्स अज्ञानविजृम्भितानां कुतः तेषां केवलज्ञानम् ।। १५८।।
आगे ज्ञानमयी आत्माको छोड़कर जो अन्य पदार्थका ध्यान करते हैं, वे अज्ञानी हैं, उनको केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है, ऐसा निरूपण करते हैं( ज्ञानमयं ) जो महा निर्मल केवलज्ञानादि अनन्तगुणरूप ( आत्मानं ) आत्मद्रव्यको ( मुक्त्वा ) छोड़कर ( अन्यद् ) जड़ पदार्थ परद्रव्य उनका ( ये ध्यानं ध्यायंति ) ध्यान लगाते हैं, (वत्स) हे वत्स, वे अज्ञानी हैं, (तेषां अज्ञानविजू भितानां ) उन शुद्धात्मा के ज्ञानसे विमुख कुमति कुश्रुत कुअवधिरूप मज्ञानसे परिणत हुए जीवोंको (केवलज्ञानं कुतः ) केवलज्ञानकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? कभी नहीं हो सकती ।
भावार्थ --- यद्यपि विकल्प सहित अवस्था में शुभोपयोगियोंको चित्तकी स्थिरताके लिये और विषय कपायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये जिनप्रतिमा तथा नमोकारमन्त्रके अक्षर घ्यावने योग्य हैं, तो भी निश्चय ध्यानके समय शुद्ध नात्मा ही ध्यावने योग्य है, अन्य नहीं || १५८ ॥
अथ
सुराउं परं झायंताहं वलि वलि जोइयडाहं ।
समरसि भाउ परेण सहु पुराणु वि पाउण जाहं ॥१५६॥