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परमात्मप्रकाश
[ २३५ भटकेगा, अब तो मोक्षका साधन कर, ऐसा सम्बोधन करते हैं--(जीव) हे अज्ञानी जीव, (त्वं) तू (विषयासक्तः) विषयोंमें आसक्त होके (कियंतं कालं) कितना काल (गमिष्यसि) वितायेगा (शिवसंगम) अब तो शुद्धान्माका अनुभव (निश्चलं) निश्चलरूप (कुरु) कर, जिससे कि (अवश्यं) अवश्य (मोक्षं) मोक्षको (लभसे) पावेगा।
भावार्थ-हे अज्ञानी, तू शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परम आनन्दरूप अविनाशी सुखके अनुभवसे रहित हुआ विषयोंमें लीन होकर कितने कालतक भटकेगा। पहले तो अनन्तकाल तक भ्रमा, अब भी भ्रमणसे नहीं थका, सो बहिर्मुख परिणाम करके कब तक भटके गा ? अब तो केवलज्ञान दर्शनरूप अपने शुद्धात्माका अनुभव कर, निज भावोंका सम्बन्ध कर । घोर उपसर्ग और बाईस परीषहोंको उत्पत्तिमें भी सुमेरुके समान निश्चल जो आत्म-ध्यान उसको धारण कर, उसके प्रभाव से नि:संशय मोक्ष पावेगा । जो मोक्ष पदार्थ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्यादि अनन्तगुणोंका ठिकाना है, सो विषयके त्यागसे अवश्य मोक्ष पावेगा।
अथ शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मसंसर्गत्यागं मा कास्त्विमिति पुनरपि संबोधयति-. इहु सिव-संगमु परिहरिवि गुरुवड कहिं वि म जाहि । जे सिव-संगमि लीण णवि दुक्खु सहंता वाहि ॥१४२॥ इमं शिवसंगम परिहृत्य गुरुवर क्वापि मा गच्छ ।
ये शिवसंगमे लीना नैव दुःखं सहमाना: पश्य ।।१४२।।
आगे निजस्वरूपका संसर्ग तू मत छोड़, निजस्वरूप ही उपादेय है, ऐसा ही बार-बार उपदेश करते हैं-(गुरुवर) हे तपोधन, (शिवसंगम) आत्म-कल्याणको (परिहत्य) छोड़कर (क्वापि) तू कहीं भी (मा गच्छ) मत जा, (ये) जो कोई अज्ञानी जीव (शिवसंगमे) निजभाव में (नैव लीनाः) नहीं लीन होते हैं, वे सब (दुःख) दःखको (सहमानाः) सहते हैं, ऐसा तू (पश्य) देख ।
भावार्थ-यह आत्म-कल्याण प्रत्यक्षमें संसार-सागरके तैरनेका उपाय है उसको छोड़कर हे तपोधन, तू शुद्धात्माकी भावनाके शत्रु जो मिथ्यात्व रागादि उनमें कभी गमन मत कर, केवल आत्मस्वरूपमें मगन रह । जो कोई अज्ञानी विषयक़पायके वश होकर शिवसङ्गम (निजभाव) में लीन नहीं रहते, उनको व्याकुलतारूप दुःख भव-वन में सहता देख । संसारी जीव सभी व्याकुल हैं, दुःखरूप हैं, कोई सुखी