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________________ २३६ ] परमात्मप्रकाश नहीं है, एक शिवपद ही परम आनन्दका धाम है । जो अपने स्वभाव में निश्चयनयकर ठहरनेवाला केवलज्ञानादि अनन्तगुण सहित परमात्मा उसी का नाम शिव है, ऐसा नाम जगह जानना । अथवा निर्वाणका नाम शिव है, अन्य कोई शिव नामका पदार्थ नहीं है, जैसा कि नैयायिक वैशेषिकोंने जगत्का कर्ता हर्ता कोई शिव माना है, ऐसा त मत मान । तू अपने स्वरूपको अथवा केवलज्ञानियोंको अथवा मोक्षपदको शिव समझा। यही श्रीवीतरागदेवकी आज्ञा है ।।१४२।। अथ सम्यक्त्वदुर्लभत्वं दर्शयति काल अणाइ अगाइ जिउ भव-सायरु वि अंणतु । जीवि विरिण ण पत्ताई जिणु सामिउ सम्मत्तु ॥१४॥ कालः अनादिः अनादिः जीवः भवसागरोऽपि अनन्तः । जीवेन द्वे न प्राप्ते जिनः स्वामी सम्यक्त्वम् ॥१४३॥ मागे सम्यग्दर्शनको दुर्लभ दिखलाते हैं-(कालः अनादिः) काल भी अनादि है, (जीवो अनादिः) जोव भी अनादि हैं, और (भवसागरोऽपि) संसार-समुद्र भी (अनंतः) अनादि अनन्त है । लेकिन (जीवेन) इस जीवने (जिनः स्वामी सम्यक्त्व) जिनराजस्वामी और सम्यक्त्व () ये दो (न प्राप्ते) नहीं पाये। भावार्थ-काल जीव और संसार ये तीनों अनादि हैं, उसमें अनादिकालने भटकते हुए इस जीवने मिथ्यात्व-रागादिकके वश होकर शुद्धात्मस्वरूप अपना न देगा, न जाना । यह संसारी जीव अनादिकालसे आत्म-ज्ञान की भावनासे रहित है । म जीवने स्वर्ग नरक राज्यादि सब पाये, परन्तु ये दो वस्तुयें न मिली, एक तो सम्ग. ग्दर्शन न पाया, दूसरे श्रीजिन राजस्वामी न पाये । यह जोव अनादिका मिथ्याष्टि है, और क्षुद्र देवोंका उपासक है। श्रोजिनराज भगवान की भक्ति इसके पाभी ना! हुई, अन्य देवोंका उपासक हुआ सम्यग्दर्शन नहीं हआ। यहां कोई प्रश्न गरे, कि अनादिका मिथ्याप्टि होनेसे सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ, यह तो ठीक है, परन्त जिनराजस्वामी न पाये, ऐसा नहीं हो सकता ? क्योंकि "भवि भवि जिण पुरिया बंदिउ" ऐसा शास्त्रका वचन है, अर्थात् भव-भवमें इस जीवने जिनवर पृढे और. गुरु वन्दे । परन्तु तुम पाहते हो, कि इस जीवने भव-बनमें भ्रमते जिनराजधानी नहीं पाये।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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