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________________ परमात्मप्रकाश [ २३१ लौटा । संसारसे रहित जो शुद्ध आत्मा उससे उलटा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पांच प्रकारका संसार उसमें ये पंचेन्द्रोरूपो ऊंट स्वच्छन्द हुए विषय-वनको चरके जगतके. जीवोंको जगत में ही पटक देंगे, यह तात्पर्य जानना ।।१३६।। अथ ध्यानवैषम्यं कथयति जोइय विसमी जोय-गइ मणु संठवण ज जाइ । इंदिय-विसय जि सुकावडा तित्थु जि वलि वलि जाइ ॥१३७॥ योगिन् विषमा योगगतिः मन: संस्थापयितु न याति । इन्द्रियविषयेषु एव सुखानि तत्र एव पुनः पुनः याति ।।१३७।। आगे ध्यानकी कठिनता दिखलाते हैं-( योगिन् ) हे योगो, ( योगगतिः) ध्यानकी गति (विषमा) महाविषम है, क्योंकि (मनः ) चित्तरूपी बन्दर चपल होनेसे (संस्थापयितुन यति) निज शुद्धात्मामें स्थिरताको नहीं प्राप्त होता । क्योंकि (इन्द्रियविषयेषु एव) इन्द्रियके विषयों में हो (सुखानि) सुख मान रहा है, इसलिये (तत्र एव) उन्हीं विषयोंमें (पुनः पुनः) फिर-फिर अर्थात् बार-बार (याति) जाता है । भावार्थ-वीतराग परम आनन्द समरसी भावरूप अतीन्द्रिय सुखसे रहित जो यह संसारी जीव है, उसका मन अनादिकालकी अविद्याकी वासनामें वस रहा है, इसलिये पंचेन्द्रियोंके विषय-सुखोंमें आसक्त है, इन जगत्के जीवोंका मन बारम्बार विषय-सुखोंमें जाता है, और निजस्वरूप में नहीं लगता है, इसलिये ध्यानकी गति विषम (कठिन) है ।।१३७॥ अथ स्थलसंख्यावाद्यं प्रक्षेपकं कथयतिः सो जोइउ जो जोगवइ दंसणु णाणु चरित्तु । होयवि पंचहं वाहिरउ मायंतउ परमत्थु ॥१३७६३५॥ स योगी यः पालयति (?) दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् । भूत्वा पञ्चभ्यः बाह्यः ध्यायन् परमार्थम् ।।१३७*५॥ आगे स्थल-संख्याके बाह्य जो प्रक्षेपक दोहे हैं. उनको कहते हैं-(स योगी) वही ध्यानी है, (यः) जो (पंचभ्यः नाहः) पंचेन्द्रियोंसे बाहर (अलग) (भूत्वा) होकर (परमार्थ) निज परमात्माका (ध्यायन) ध्यान करता हुआ (दर्शनं ज्ञानं चारित्रं) दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नत्रयको (पालयति) पालता है, रक्षा करता है ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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