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परमात्मप्रकाश (कृत्वा) करके (तेन) उसने (मनुष्यजन्म) मनुष्यजन्मको (लब्ध्वा) पाकर (पर) केवल (आत्मा वंचितः) अपना आत्मा ठग लिया ।
___ भावार्थ-महान् दुर्लभ इस मनुष्य-देहको पाकर जिसने विषयकषाय सेवन किये और क्रोधादिरहित वीतराग चिदानन्द सुखरूपी अमृतकर प्राप्त अपना निर्मल चित्त करके अनशनादि तप न किया, वह आत्मघाती है, अपने आत्माका ठगनेवाला है । एकेन्द्री पर्यायसे विकलत्रय होना दुर्लभ है, विकल त्रयसे असैनी पंचेन्द्री होना, असैनी पंचेन्द्रियसे सैनी होना, सैनी तिर्यञ्चमे मनुष्य होना दुर्लभ है। मनुष्य में भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घ आयु, सतसङ्ग धर्मश्रवण, धर्मका धारण और उसे जन्मपर्यन्त निबाहना ये सब बातें दुर्लभ हैं, सबसे दुर्लभ (कठिन) आत्मज्ञान है, जिससे कि चित्त शुद्ध होता है । ऐसी महादुर्लभ मनुष्यदेह पाकर तपश्चरण अङ्गीकार करके निरिकल्प समाधिके वलसे रागादिका त्याग कर परिणाम निर्मल करने चाहिये, जिन्होंने चित को निर्मल नहीं किया, वे आत्माको ठगनेवाले हैं। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि चित्तके बंधनेसे यह जीव कर्मोसे बंधता है। जिनका चित्त परिग्रहसे धन धान्यादिकर आसक्त हुआ, वे ही कर्मबन्धनसे वन्धते हैं, और जिनका चित्त परिग्रहसे छूटा आशा (तृष्णा) से अलग हुआ, वे ही मुक्त हुए। इसमें सन्देह नहीं है । यह आत्मा निमत स्वभाव है, सो चित्तके मैले होनेसे मैला होता है ।।१३५।।
अथ पंञ्चेन्द्रियविजयं दर्शयति
ए पंचिंदय करहडा जिय मोकला म चारि । चरिवि असेसु वि विसय-वण पुणु पाडहिं संसारि ॥१३६॥ एते पञ्चेन्द्रियकरभकाः जीव मुक्तान मा चारय ।
चरित्वा अशेपं अपि विषयवनं पुनः पातयन्ति ससारे ।।१३६।।
आगे पांच इन्द्रियोंका जीतना दिखलाते हैं-(एते ) ये प्रत्यक्ष (पंचेन्द्रिय करभकाः) पांच इन्द्रियरूपी ऊंट हैं, उनको (स्वेच्छया) अपनी इच्छासे (मा चारव) मत चरने दे, क्योंकि (अशेषं ) सम्पूर्ण (विषयवनं) विषय-वनको (चरित्वा) चरा (पुन ) फिर ये (संसारे) समार में ही (पातयंति) पटक देगे।
भावार्थ-ये पांचों इन्द्रो अतीन्द्रियःसबके सास्वादनए परमात्मामें पग मुख हैं, उनको दे मुद जीव, तु शुद्धात्माया भावनाम पग मलहोकर निकोबार मतकर, अपने वश में रख, ये तुझे संसार में पटक देंगे, इसलिये उनका विश्वास ,