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परमात्मप्रकाश
भावार्थ-जिसके परिणाम निज शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक्श्रद्धान ज्ञान बाचर रूप निश्चयरत्नत्रयमें ही लीन है, जो पंचमगतिरूपी मोक्षके सुखको विनाश करनेवालो और पांचपरमेष्ठीकी भावनासे रहित ऐसी पञ्चेन्द्रियोंसे जुदा हो गया है, वही योगों है, योग शब्दका अर्थ ऐसा है, कि अपना मन चेतन में लगाना वह योग जिसके हो, वही योगी है, वही ध्यानी है, वही तपोधन है, यह निःसन्देह जानना ।।१३७*५।।
अथ पंचेन्द्रियसुखस्यानित्यत्वं दर्शयतिविसय-सुहइवे दिवहडा पुणु दुक्रवहं परिवाडि । भुल्लउ जीव म वाहि तुहूँ अप्पण खंधि कुहाडि ॥१३८॥ विषयसुखानि द्वे दिवसके पुनः दुःखानां परिपाटी ।
भ्रान्त जीव मा वाय त्वं आत्मनः स्कन्धे कुठारम् ।।१३८।।
आगे पंचेन्द्रियोंके सुखको विनाशीक बतलाते हैं--(विषयसुखानि) विषयों के सुख ( दिवसे) दो दिन के हैं, (पुनः) फिर बादमें (दुःखानां परिपाटी) ये विषय दुःखकी परिपाटी हैं, ऐसा जानकर (भ्रांत जीव) हे भोले जीव, (त्वं) तू (प्रात्मनः स्कंधे) अपवे कन्धे पर (कुठारं) आप ही कुल्हाड़ोको (मा वाहय) मत चलावे ।
भावार्थ-ये विषय क्षणभंगुर हैं, बारम्बार दुर्गतिके दुःखके देनेवाले हैं, इस लिये विषयोंका सेवन अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी का मारना है, अर्थात् नरकमें अपने डुबोना है, ऐसा व्याख्यान जानकर विषय-सुखोंको छोड़, वीतराग परमात्म-गुख में ठहरकर निरन्तर शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये ।। १३८।।
अथात्मभावनार्थं योऽसौ विद्यमानविषयान् त्यजति तस्य प्रशंसां करोतिसंता विसय जु परिहरइ वलि किज्जउं हउं तासु । सो दइवेण जि मुडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ।।१३६॥ सतः विषयान् यः परिहर ति बलि करोमि अह तस्य । स देवेन एव मुण्डितः गीर्ष खल्बाट यस्य ।।१३६।।
आगे आत्म-भावनाके लिये जो विद्यमान विषयोंको छोड़ता है, उसकी प्रगंगा करते हैं--(यः) जो कोई जानी (सतः विषयान् ) विद्यमान विषयोंका (परिहति } छोड़ देता है, (तस्य) उसकी (अहं) में (बलि) पूजा (करोमि) करता हूँ, नगर