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आगे उसी हिंसा के दोपको फिर निन्दते हैं, और दयाधर्मको दृढ़ करते हैं(जीव) हे जीव, ( यत् त्वं ) जो तू ( जीवान् ) परजीवोंको ( मारयित्वा ) मारकर ( चूरयित्वा ) चूरकर ( दुःखं करिष्यसि ) दुःखी करता है, (तत्) उसका फल ( तदपेक्षया) उसकी अपेक्षा ( अनंतगुणं) अनन्तगुणा ( अवश्यमेव ) निश्चय से ( लभसे ) पावेगा ।
परमात्मप्रकाश
भावार्थ - निर्दयी होकर अन्य जीवोंके प्राण हरना, परजीवोंका शस्त्रादिक से घात करना, वह मारना है, और हाथ पैर आदिकसे, तथा लाठी आदिसे परजीवोंका काटना, एकदेश मारना वह चूरना है, यह हिंसा ही महा पापका मूल है, निश्चयनयसे अभ्यन्तरमें मिथ्यात्व रागादिरूप तीक्ष्ण शस्त्रोंसे शुद्धात्मानुभूतिरूप अपने निश्चय प्राणों को हत रहा है, क्लेशरूप करता है, उसका फल अनंत दुःख अवश्य सहेगा । इसलिए हे मूढ़ जीव, परजीवोंको मत मारे और मत चूरे, तथा अपने भाव हिंसारूप मत कर, उज्ज्वल भाव रख, जो तू जीवोंको दुःख देगा, तो निश्चयसे अनन्तगुणा दुःख
पावेगा |
यहां सारांश यह है - जो यह जीव मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ पहले तो अपने भावप्राणोंका नाश करता है, परजीवका घात तो हो या न हो, परजीवका घात तो उसकी आयु पूर्ण हो गई हो, तब होता है, अन्यथा नहीं; परन्तु इसने जब परका घात विचारा, तब यह आत्मघाती हो चुका । जैसे गरम लोहेका गोला पकड़ने से अपने हाथ तो निस्सन्देह जल जाते हैं । इससे यह निश्चय हुआ, कि जो परजीवों पर खोटे भाव करता है, वह आत्मघाती है। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो आत्मा कषायवाला है, निर्दयी है, वह पहले तो आप ही अपने से अपना घात करता है, इसलिये आत्मघाती है, पीछे परजीवका घात होवे, या न होवे । जीवकी आयु बाकी रहो हो, तो यह नहीं मार सकता, परन्तु इसने मारने के भाव किये, इस कारण निस्सन्देह हिंसक हो चुका, और जब हिंसा के भाव हुए, तब यह कपायवान् हुआ । कपायवान् होना ही आत्मघात है ।। १२६ ।।
अथ जीववधेन नरकगतिस्तद्रक्षणे स्वगों भवतीति निश्चिनोति
जीव वहं हं खरय - गइ अभय-पदारों सग्गु |
हवा दरिसिया जहिं रुच्च तहिं लग्गु ॥ १२७॥